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श्रीजैन सिद्धान्त -
- स्वाध्यायमाला
संसारमावन परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उवेयकाले, न बंधवा बंधवयं उर्विति ॥ ४ ॥ वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमंमि लोए अदुवा परत्थ । दीपव अणतमोहे, नेयाउयं दमदमेव ॥ ५ ॥ सुसुआवी पडिबुद्धजीवी, न वीसंसे पंडिय आसुपण्णे । घोरा महुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खीव चरsप्पमत्तो ॥ ६ ॥ चरे पयाइ परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मनमाणो । लाभंतरे जीवियवूहइत्ता, पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥ ७ ॥ छंदनिरोहेण उवेइ मोक्खं, आसे जहा सिक्खियवम्मधारी । पुव्वाई वासाइं चरप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिष्पमुवेइ मुक्खं ॥ ८ ॥ सव्वमेवं न लभेज्ज पच्छा, एसोवमा सासयवाइयाणं । विसीदई सिटिले आउयम्मि, कालोवणीए सरीरस्स भेए ॥ ९ ॥ खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं, तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे । समिच्च लोयं समया महेसी, आयाणुरक्खी चरमप्पमत्ते ॥ १० ॥ मुहुं मुहुं मोहगुणे जयन्तं, अणेगरूवा समणं चरन्तं । फासा फुसन्ती असमंजसं च न तेसि भिक्खू मणसा उस्से ॥ ११ ॥ मन्दा य फासाबहुलोह णिज्जा, तहप्पगारेसु मणं न कुज्जा । रक्खज्ज कोहं विणएज्ज माणं, मायं न सेवेज पयहेज्ज लोहं ॥ १२ ॥ जेऽसंख्या तुच्छपरप्पवाई, ते पिज्जदोसाणुगया परभा । एए अहम्मेति दुर्गुछमाणो, कंखे गुणे जाव सरीरभेउ ॥ १३ ॥ त्ति बेमि ॥ इअ असंखयं चउत्थं अज्झयणं समत्तं ॥
॥ अह अकाममरणिज्जं पञ्चम अज्झयण |
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अण्णवंसि महोहंसि, एगे तिण्णे दुरुत्तरं । तत्थ एगे महापने, इमं पण्हमुदाहरे ॥ सन्तिमे य दुवे ठाणा, अक्खाया मरणन्तिया । अकाममरणं चेव, सकाममरणं तहा बालाणं तु अकामं तु मरणं असई भवे । पण्डियाणं सकामं तु, उक्कोसेण सई भवे तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरण देखियं । कामगिद्धे जहा बाले, जे गिद्धे कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छई । न मे दिट्ठे परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमा रई हत्थाया इमे कामा, कालिया जे अणागया । को जाणइ परे लोए, अस्थि वा नत्थि वा पुणो ।। ६ ।। जणेण सद्धिं होक्खामि इइ वाले पगब्भई । कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिवज्जई ॥ ७ ॥ तओ से दण्डं समारभई, तसेसु थावरेसु य । अट्ठाए य अणट्टाए, भूयगामं विहिंसई ॥ ८ ॥ हिंसे वाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे । भुंजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नई ॥ ९ ॥
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भिसं कूराइं कुव्वई ॥
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