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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र - बतीस माध्ययनम्
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ६५ ॥ रसाणुगासाणुगए य : जीवे, चराचरेहिंसइणेगरूवे । चिंहि ते परतावे वाले पीलेइ अत्तगुरु किलट्ठे ॥ ६६ ॥ रसाणुवाण, परिग्गण, उप्पायणे रक्खणसंनिओगे |
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विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलामे ॥ ६७ ॥ रसे अति य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उबेह तुट्ठि । अतुट्ठदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ६८ ॥ तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रसे अदत्तस्स परिग्गहे य । मायामु बढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ६९ ॥ मोसस्स पच्छाय पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरन्ते । एवं अदत्ताणि समाययन्तो, रसे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ७० ॥ रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । तत्थभोगे वि किलेसदुक्खं, निवतई जस्स कएण दुक्खं ॥ ७१ ॥ एमेव रसम्म गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पट्ठचित्तोय चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ७२ ॥ रसे विरतो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । नलिई भवमज्झे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ ७३ ॥ कायरस फास गहणं वयन्ति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु | तं दो सहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ ७४ ॥ फासस्स कायं गहणं वयन्ति, कायस्स फासं गहणं वयंति । गगस्स हे समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥ ७५ ॥ फासेसु जो गेहिमुवे तिथं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे सीयजलावसन्ने, गाहग्गहीए महिसे विवन्ने ॥ ७६ ॥ जे यावि दोसं समुवेइ तिब्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं ।
दोसेण सण जन्तू न किंचि फासं अवरुज्झई से ॥ ७७ ॥ एगन्तरतं रुइरंसि फासे, आतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवे बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ७८ ॥ फासाणुगासागर य जीवे, चराचरे हिंसइणेगरूवे । चितेहि ते परतावेड़ बाले, पीले अत्तट्टगुरूकिलिट्ठ ॥ ७९ ॥ फासाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । ar विओगे यह सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलामे ॥ ८० ॥ फासे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेह तुट्ठि । अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ८१ ॥
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