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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र-बतीसमाध्ययनम्
॥ अह पमायठाणं बत्तीसइमं अज्झयण ॥
अञ्चन्तकालस्य समूलगस्स सबस्स दुक्खस्स उजो पमोक्खो। तं भासओ मे पडिपुण्णचित्ता, सुणेह एगन्तहियं हियत्थं ॥१॥ नाणस्स सब स पगासणाए, अन्नाणमोहस्स विवजणाए। . रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगन्तसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥२॥ तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा, विवजणा बालजणस्स दूरा। सज्झायएगन्तनिसेवणा य, सुत्तत्थसंचिन्तणया धिई य ॥ ३ ॥ आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं, सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धिं । निके यमिच्छेज विवेगजोग्गं, समाहिकामे समणे तबस्सी ॥ ४ ॥ न य लभेजा नि उणं सहयं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एक्को वि पवाइ विवजयन्ततो, विहरेज कामेसु असन्जमाणो ॥५॥ जहा य अएडप्पभवा बलागा. अण्ड बालागप्पभव जहा य। एमेव मोहाययणं खु तण्हा, पोहं च तण्हाययणं वयन्ति ॥ ६ ॥ रागो य दोसो विय कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति । कम्मं च जाइमरणस्स मलं, दुक्खं च जाईमरणं वयन्ति ॥ ७ ॥ दुक्खं हयं जस्सन होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा । तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई ॥८॥ रागं च दोसंच तहेव मोहं, उद्धत्तु कामेण समूलजालं। जे जे उबाया पडिवजियचा, ते कित्तइस्सामि अहाणुपुर्वि ॥ ९ ॥ रसा पगामं न निसेवियवा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति, दुमं जहा साउफलं व पक्खो ॥१०॥ जहा दवम्गी पउरिन्धणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेई । एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो,न बम्भयारिस्स हियायि कस्सई ॥११॥ विवित्तसेज्जासणजन्तियाणं, ओमासणाणं दमिइन्दियाण। न रागसत्त धरिसेइ चित्तं, पराइओ वाहिरिवोसहेहिं ।। १२ ॥ जहा विरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बम्भयारिस्स स्वमो निवासो॥ १३ ॥ न रूबलावण्णविलासहासं, न जंपियंइंगियपेहियं वा। इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता, दो ववस्से समणे तवस्सी ॥ १४ ॥ अदसणं चेव अपत्थणं च, अचिन्तणं चेव अकित्तणं च । इत्थीजणस्सारियज्माणजुग्गं, हियं सया बम्भवए रयाणं ॥ १५॥