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उत्तराध्ययनसूत्रम्
मायाहि सिक्खाहिं जे नरा गिहिसुव्वया । उवेन्ति माणुस जोणि कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥ २० ॥
जेसि तु विउला सिक्खा मूलियं ते अइच्छिया । सीलवन्ता सवीसेसा अदीणा जन्ति देवयं ॥ २१ ॥ एवमद्दीणवं भिक्खु अगारिं च वियाणिया । कहण्णु जिच्च मेलिक्खं जिच्चमाणे न संविदे ॥ २२ ॥
जहा कुसग्गे उदगं समुद्देण समं मिणे । एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अन्तिए ॥ २३ ॥
कुसग्गमेत्ता इमे कामा सन्निरुद्धमि आउए । कस्स हे पुराकाउं जोगवखेमं न संविदे ॥ २४ ॥
इह कामाणियट्टस्स अन्तट्टे अवरज्झई । सोच्चा नेयाउयं मग्गं जं भुज्जो परिभस्सई ॥ २५ ॥ ३ह कामणियट्टस्स अन्तट्ठे नावरज्झई । पूइदेहनिरोहेणं मवे देवि त्ति मे सुयं ॥ २६ ॥
हड्डी जुई असो वण्णो आउं सुहमणुत्तरं । भुज्जो जत्थ मणुस्सेसु तत्थ से उववज्जई ॥ २७ ॥
बालस्स पस्स बालत्तं अहम्मं पडिवज्जिया । चिच्चा धम्मं अहम्मिट्ठे नरए उववज्जई ॥ २८ ॥
धीरस्स पस्स धरित्तं सच्चधम्माणुवत्तिणो । चिच्चा अधम्मं धम्मिट्टे देवेसु उववज्जई ॥ १९ ॥
तुलियाण बालभावं/ अबालं चेव पण्डिए । चइऊण बालभावं अबालं सेवए मुणि ॥ ३० ॥ त्ति बेमि ॥
॥ एलयज्झयणं समन्तं ॥ ७ ॥
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