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उत्तराध्ययनसूत्रम् (अभ्ययन १४) चित्तों वि कामेहि विरत्तकामी, उदग्गचारित्ततवो महेसी । अणुत्तर संजम पालइत्ता, अणुत्तर सिद्धिगइ गओं ॥३५॥ त्ति बेमि ॥ इति चित्तसंभूइज्जणाम तेरहम अज्झयण समत्तं
॥१३॥
॥ अह उमुयारिज चोदहमं अज्झयणं ॥ देवा भवित्ताण पुरे भवम्भी, केई चुया एगविमाणवासी । पुरे पुराणे उसुयारनामे, खाए समिद्धे सुरलोगरम्मे ॥ १ ॥ सकम्मसेसेण पुराकहणं, कुलुसुदग्गेसु य ते पसूया । निविण्णसंसारभयो जहाय, जिणिंदमग्ग सरणं पवन्ना ॥२॥ पुमत्तमागम्म कुमार दो वी, पुरोहिओ तस्स जसा य पत्ती । विसालकित्ती य तहोसुयारो, रायस्थ देवी कमलावई य ॥३॥ जाईजरामच्चुभयाभिभूया, बहि विहाराभिनिविचित्ता । . . संसारचक्कस्स विमोक्खणडा, दट्टण ते कामगुणे विरत्ता ॥४॥ पियपुत्तगा दोन्नि, वि माहणस्स, सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स । सरित्तु पोराणिय तत्थ जाई, तहा सुचिण्णं तवसंजम च ॥५॥ ते कामभोगेसु असज्जमाणा, माणुस्सएसु जे यावि दिब्वा । मोक्खाभिकंखी अभिजायसङ्घ, तायं उवागम्म इमं उदाहु ।।६।। असासय द? इम विहार वहु अंतरायन य दीहमाउं तम्हा गिहंसि न रई लभामो, आमतयामो चरिस्सामु माण
॥ ७ ॥