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________________ १२४ उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययन २९) उ० अपलिमथ जणयइ, निरूवहिए णं जीवे निकखी उवहिमंतरेण य न संकिलिस्सई ॥ ३४ ॥ आहारपञ्चक्खाणेणं भते जीवे कि जणयइ ? आ० जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदइ, जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदित्ता जीवे आहारमतरेणं न संकिलिस्सइ ॥ ३५ ।। कसायपञ्चक्खाणेण भते जीवे किं जणयइ ? क° वीयरागभावं जणयइ, वीयरागभावपडिवन्ने वि य ण जीवे समसुहदुक्खे भवइ ॥ ३६ ।। जोगपञ्चक्खाणेण भते जीवे किं जणयइ ? जो० अजोगत्तं जणयइ, अजोगी ण जीवे नवं कम्म न बधइ, पुव्वबद्धं निजरेइ ॥ ३७ ।। सरीरपञ्चक्खाणेण भते जीवे किं णजयइ ? स सिद्धाइसयगुणकित्तण निव्वत्तेइ, सिद्धाइसयगुणसंपन्ने यण जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही भवइ ।। ३८ ।। सहायपञ्चक्खाणेण भते जीवे किं जणयइ ? स. एगीभावं जणयइ, एगीभावभूए वि य ण' जीवे एगग्ग भावे माणे अप्पझझे अप्पकलहे अप्पकसाए अप्पतुम तुमे संजमबहुले संवरबहुले समाहिए यावि भवइ ॥ ३९ ॥ भत्तपञ्चक्खाणेण भते जीवे किं जणयइ ? भ० अणेगाई भवसयाई निरू भइ ।। ४० ॥ सम्भावपञ्चक्खाणेण भते जीवे किं जणयइ ? स० अनियट्टि जणयइ, अनियट्टिपडिवन्ने य अणगारे चत्तारि
SR No.022569
Book TitleUttaradhyayan Sutra Mul Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
PublisherPurushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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