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मत्स्यपुराण १५२ वे अध्यायमें तारकासुर दैत्यके साथ देवताओंका बड़ा भारी युद्ध हुआ; उसमें परस्पर दोनों सेनामें बहोत ही मारे गए. अन्तमें इन्द्रादि लोकपालोंको तथा विष्णुको बांध कर और रथमें बैठ कर तारकासुर अपने स्थानमें चला. गया. देखो
" ततो रथादवप्लुत्य, तारको दानवाधिपः।
जघान कोटिशो देवान् , करपाणिभिरेव च । हतशेषाणि सैन्यानि, देवानां विप्रदुद्रुवुः ॥ २२३ ॥ दिशो भीतानि सन्त्यज्य, रणोपकरणानि तु लोकपालाँस्ततो दैत्यो, बबन्धेन्द्रमुखान् रणे ॥ २२४ ॥ सकेशवान् दृढः पाशैः, पशुमारः पशूनिच । स भूयो रथमास्थाय, जगाम स्वकमालयम् ॥ २२५ ।। सिद्धगंधर्वसंघुष्ट-विपुलाचलमस्तकम् । स्तूयमानोदितिसुतै-रप्सरोभिर्विनोदितः ॥२२६ ॥ त्रैलोक्यलक्ष्मीस्तद्देशे, प्राविशत् स्वपुरं यथा । निषसादासने पद्म-रागरत्नविनिर्मिते ॥२२७ ।। ततः किन्नरगंधर्व-नागनारीविनोदितैः । क्षणं विनोद्यमानस्तु, पचलन्मणिकुण्डलः २२८ ॥"
अर्थ-इसके पीछे तारकासुर दैत्य रथसे नीचे उतर कर अपने हाथोंसे और पैरोंकी एडीओंसे करोडो देवताओंको मारता भया.फिर शेष बची हुई देवताओंकी सेना भयभीत होकर रणको त्याग दशो दिशामें भाग गई ॥ २२३ ॥ तब वह दैत्य रणके मध्यमेंसे इन्द्रादिक सब लोकपालोंको बांद लेता भया और विष्णु आदिको भी ऐसे बांदता भया जैसे कि, व्याध पुरुष