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________________ इत्यादि लिखा है, अव्वल उनकी यह मिथ्यांधता है कि तांत्रिकमतका असर बौद्ध और जैनधर्ममां हुआ, ऐसे लिख कर वैदिकधर्मको किनारे ही रक्खा, क्या चारों तर्फसे जलता हुआ तांत्रिकमत दावानल वैदिकोंका रिस्तेदार-संबंधी था ? जो उसमें असर नहीं हुआ और जैनमें हो गया, दूसरी यह मिथ्यांधता है कि जैनधर्म जैसे पाक अमूलोंको माननेवाले उस समयके-ईस्वीसन् आठवी शताब्दिके यतियोंमें इतनी पवित्रता थी कि वे किसी तरहसे मांस बलिदान जैसे अधमकर्त्तव्यको कर ही नहीं सकते थे तथापि उनमें विना प्रमाण मांस बलिदानका रीवाज लिख मारा, आधार वगैर आधेय हो ही नहीं सकता, क्यों कि जब तांत्रिकमतमें जैनोंकी अभिरुचि किसी भी प्रमाणसे किसो कालमें भी साबित नहीं होती तो फिर उस मतकी नीचक्रियाका तो होना ही असंभाव्य है, हाँ, व्यक्तिगत दोष संभाव्य हो सकता है परंतु समष्टि आश्रित जैनसमाजमें तांत्रिकमतकी असर लिखनी ऐसा है जैसे ठक्कुर कहे कि-" मम माता वंध्या. सीत् ” अर्थात् मेरी माता वंध्या थी, क्यों कि उस समयमें -ईस्वीसन्की आठवी शताब्दिमें चैत्यवास करनेवालोंका अस्तित्व था और वो कितने ही काल तक चला, इनकी इस शिथिलताका भी बडे जोरो शोरसे उस वख्तके त्यागी मुनिओंने खंडन किया था जिसका जिक्र शास्त्रोंमें आता है, ऐसे ही अगर तांत्रिकवादियोंकी टुकडी जैनमतमें उत्पन्न हुई होती तो अवश्य उसका भी खंडन उस वक्त शुद्धक्रिया करनेवाले महात्मा लिखतें मगर ऐसा जिक्र कहीं भी नहीं देखनेसे ठक्कुरकी यह द्वेषमय प्रवृत्ति है और ऐतिहासिक विष
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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