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________________ (८५) कर कहेंगी ॥ १५ ॥ गोपीओंकी रोस भरी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि जो तुम मेरी दासीएं हो और मेरा कहना तुमको अंगीकार है तो हे मन्दमुसकान वालीओ ! तुम यहां आन कर अपने वस्त्र ले जाओ ॥ १६ ॥ जब कुछ उपाय न चल सका तब हार कर शर्दीकी मारी काँपती हुइ संकोच करती संपूर्ण गोपीका दोनों हाथोंसे कुच और योनिको ढक जलसे बाहिर आई ॥ १७ ! तब श्यामसुन्दर बोले कि दोनो हाथ जोडकर सूर्यनारायणको प्रणाम करो ॥ १९॥ यहां पर पाठक महोदयको विचार करना चाहिये कि जहां पर नंगी स्त्रीओ स्नान करती थी वहां कृष्णका जाना और उनके वस्त्र ले कर कदंब पर चढ जाना, उनके गुह्यस्थलोंको खुल्ला करनेके लिये सूर्यनारायणको प्रणाम करो ऐसे कहना क्या परमात्माका काम है ? कि कामीका, निष्पक्षपाठककी अंतर आत्मामें इस प्रश्नका यही उत्तर मिलेगा कि ये सब लक्षण कामीके ही हैं, जो कि इस विषयके समाधान के लिये वरुण देवताका इन्होंने अपराध किया, क्यों कि जलमें नंगा होकर स्नान करना ( वरुण देवताका जलाधिष्ठायक होनेसे ) अपराध है, इस लिये इनको श्रीकृष्ण चंद्रजीने सजा की ऐसा कितनेक अंधभक्त कहते हैं परन्तु यह बात युक्ति हीन है, क्यों कि जैसे किसी स्त्रीने किसी इज्जतदार मनुष्यके घरको निर्जन मान कर बेसमजीसे अपने कपडे उतार दिये, इस विषयमें उसको शिक्षा देनेके लिये उस नगरका राजा उस-स्त्रीके योनि तथा कुचको खुल्ला
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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