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Studies in Umāsvāti
अध्याय-2 (i) औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक- पारिणामिकौ च। - तत्त्वार्थसूत्र, 2.1
द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम्।। - तत्त्वार्थसूत्र, 2.2 भावाः भवन्ति जीवस्यौदयिकः पारिणामिकश्चैव।
औपशमिकः क्षयोत्थः क्षयोपशमजश्च पञ्चैते।।
ते चैकविंशतित्रिद्विनवाष्टादशविधाश्च विज्ञेयाः। -प्रशमरतिप्रकरण, 196-197
तत्त्वार्थसूत्र के उपर्युक्त दो सूत्रों में औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक (मिश्र), औदयिक और पारिणामिक भावों के नामों एवं उनके भेदों का उल्लेख है। प्रशमरतिप्रकरण की उपर्युक्त कारिकाओं में भी इन्हीं पाँच भावों के नामों एवं भेदों का समानरूपेण उल्लेख है, मात्र क्रम भिन्न हो गया है।
पाँच भावों एवं उनके भेदों की समानता के अतिरिक्त प्रशमरति में सान्निपातिक नामक षष्ठ भाव का भी उल्लेख हुआ है। उसके पन्द्रह भेद कहे गए हैं
___ षष्ठश्च सान्निपातिक इत्यन्यः पञ्चदशभेदः। -प्रशमरतिप्रकरण, 197 (ii) उपयोगो लक्षणम्। – तत्त्वार्थसूत्र, 2.8
सामान्यं खलु लक्षणमुपयोगो भवति सर्वजीवानाम्। –प्रशमरतिप्रकरण, 194 जीव का लक्षण उपयोग है, यह तथ्य उभयत्र समान शब्दावली में अभिहित
(iii) स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः। - तत्त्वार्थसूत्र, 2.9
साकारोऽनाकारश्च सोऽष्टभेदश्चतुर्धा तु। - प्रशमरतिप्रकरण, 194 वह उपयोग दो प्रकार का है- साकार(ज्ञान) एवं अनाकार(दर्शन)। इनमें प्रथम साकार उपयोग आठ प्रकार का एवं अनाकार उपयोग चार प्रकार का है। (iv) संसारिणो मुक्ताश्च। –तत्त्वार्थसूत्र, 2.10
जीवा मुक्ताः संसारिणश्च संसारिणस्त्वनेकविधाः। - प्रशमरतिप्रकरण, 190
जीव संसारी एवं मुक्त के भेद से दो प्रकार के हैं। इनके उपभेदों में भी दोनों ग्रन्थों में पर्याप्त साम्य है।