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226 Studies in Umāsvāti अनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों का क्षय कर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है। जबकि गुणश्रेणी विकास की अवस्थाओं में विरत के बाद अनन्तवियोजक और दर्शनमोहक्षपक की स्थिति है।
दूसरी बात इन दस अवस्थाओं के आधार पर यह मानना पड़ेगा कि व्यक्ति उपशमश्रेणी लेने के बाद क्षपक श्रेणी लेता है अर्थात् छठी, सातवीं अवस्था में पहले चारित्रमोह का उपशमन करता है, फिर आठवीं, नवी अवस्था में चारित्र मोह की प्रकृतियों का क्षय करता है, पर गुणस्थान सिद्धान्त के अनुसार यह बात संगत नहीं बैठती। गुणस्थान क्रमारोह के अनुसार यह आवश्यक नहीं कि व्यक्ति उपशम श्रेणी लेने के बाद क्षायिकश्रेणी ले। वहां दोनों विकल्प सम्भव हैं। व्यक्ति पहले कषायों का उपशमन करता हुआ उपशम श्रेणी भी ले सकता है और क्षय करता हुआ क्षपक श्रेणी भी प्राप्त कर सकता है।
गुणश्रेणी विकास की ये अवस्थाएं गुणस्थान सिद्धान्त की पूर्व भूमिकाएं नहीं हैं इस मत की पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि इन अवस्थाओं के नामों के साथ गुणस्थान के नामों का विशेष साम्य नहीं है।
तत्त्वार्थसूत्र का अध्ययन करने के बाद यह स्पष्ट अवधारणा बन जाती है कि गुणस्थान एवं गुणश्रेणी विकास की अवस्थाओं-इन दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व था। उमास्वाति ने गुणस्थानों के अनेक नामों का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र में किया है। उदाहरण के लिए कुछ नामों को प्रस्तुत किया जा सकता है
नाम तत्त्वार्थसूत्र 1. अविरत (चौथा गुणस्थान)-तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् (9/35) 2. देशविरत (पांचवां गुणस्थान)-(9/35) 3. प्रमत्तसंयत (छठा गुणस्थान)-(9/35) 4. अप्रमत्तसंयत (सातवां गुणस्थान)-आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्मम
प्रमत्तसंयतस्य (9/37) 5. बादरसम्पराय (आठवां, नवां गुणस्थान)-बादरसम्पराये सर्वे 6. सूक्ष्मसम्पराय (दसवां गुणस्थान)-सूक्ष्मसम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश
(9/10) 7. उपशान्तकषाय (ग्यारहवां गुणस्थान)-उपशान्तक्षीणकषाययोश्च (9/38) 8. क्षीणकषाय (बारहवां गुणस्थान)-(9/38) 9. केवली (तेरहवां, चौदहवां गुणस्थान)-परे केवलिनः (9/40)