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224 Studies in Umāsvāti 6. दर्शनमोहत्रिक क्षपक 6. कषाय उपशमक 7. उपशमक
7. उपशान्त 8. क्षपक
8. क्षपक 9. क्षीणमोह
9. क्षीणमोह 10. सयोगी (नाथ)
10. जिन 11. अयोगी (नाथ)
उमास्वाति के बाद लगभग सभी आचार्यों ने जिन के सयोगी और अयोगीये दो भेद करके ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया है। स्वामीकुमार कृत कार्तिकेयानुप्रेक्षा में उपशान्त अवस्था का उल्लेख नहीं है। उन्होंने सम्यग्दृष्टि से पूर्व की अवस्था मिथ्यादृष्टि को माना है तथा जिन के स्थान पर नाथ का प्रयोग करके उसके सयोगी और अयोगी ये दो भेद किए हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के टीकाकार शुभचन्द्र ने उपशान्त अवस्था की व्याख्या की है।
गुणश्रेणी विकास की दस अवस्थाओं में नौ की, तो पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाएं हैं, जिनमें पूर्ववर्ती अवस्था की अपेक्षा उत्तरवर्ती में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा होती है लेकिन सम्यग्दृष्टि की पूर्ववर्ती अवस्था का उल्लेख नहीं हुआ है। स्वामीकुमार ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में मिथ्यात्वी की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि की असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा स्वीकार की है। उनके अनुसार यह सम्भावना की जा सकती है कि सम्यग्दृष्टि की पूर्ववर्ती अवस्था मिथ्यादृष्टि है क्योंकि उन्होंने मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि की असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा स्वीकार की है।
यहां एक प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि क्या मिथ्यादृष्टि के भी निर्जरा सम्भव है? इस प्रश्न के समाधान में यह कहा जा सकता है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से मिथ्यात्वी का मिथ्यादृष्टि क्षयोपशम भाव है, अतः वह जो कुछ सही जानता या देखता है, वह निर्जरा का कारण है। आचार्य भिक्षु और जयाचार्य ने इस मत की पुष्टि में अनेक हेतु दिए हैं। लेकिन कुछ परम्पराएं मिथ्यादृष्टि को निर्जरा का हेतु नहीं मानतीं। यदि यह आत्मिक उज्ज्वलता या निर्जरा का हेतु नहीं होती तो गुणस्थान सिद्धान्त में प्रथम तीन भेदों को स्थान नहीं मिलता।
___ आचारांगसूत्र के टीकाकार आचार्य शीलांक ने सम्यक्त्व उत्पत्ति से पूर्व की भी कुछ अवस्थाओं का वर्णन किया है। उनके अनुसार मिथ्यादृष्टि जीव जिनके देशोन कोटाकोटि कर्म शेष रहे हैं तथा जो ग्रन्थिभेद के समीप पहुंच गए हैं, वे निर्जरा की दृष्टि से तुल्य होते हैं। मिथ्यादृष्टि के बाद की ये पांच अवस्थाएं