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216 Studies in Umāsvāti
आपने इस टीका में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करते हुए लिखा है
आसीद् दिन्नगणिः क्षमाश्रमणतां प्रापत् क्रमेणैव यो विद्वत्सु प्रतिभागुणेन जयिना प्रख्यातकीर्तिभृशम्। वोढा शीलभरस्य सच्छुत निधिर्मोक्षार्थिनामग्रणी। जज्वालामलमुच्चकैर्निजतपस्तेजोभिख्याहतम्।।1।।
....तत्त्वार्थशास्त्रटीकामिमां व्यधात् सिद्धसेनगणिः।।7।। तत्त्वार्थभाष्य लघुवृत्ति-(डुपडुपिका वृत्ति) यह वृत्ति तीन आचार्यों द्वारा लिखी गयी टीका है। किन्तु यह मुख्यतया आचार्य हरिभद्र प्रणीत मानी जाती है। क्योंकि आरम्भ के साढ़े पाँच अध्यायों की वृत्ति हरिभद्र ने लिखी। शेष भाग की वृत्ति यशोभद्र नाम के आचार्य ने लिखी। इन्हीं यशोभद्र के अज्ञातनामा शिष्य ने दसम अध्याय के अन्तिम सूत्र के भाष्य पर वृत्ति लिखी। इस तरह टुकड़े-टुकड़े में एक के बाद एक, इस तरह तीन आचार्यों द्वारा पूरी होने के कारण इस वृत्ति को इसमें उल्लेखों के आधार पर कुछ विद्वान् ‘डुपडुपिका' (दुपदुपिका) भी कहते हैं। एक तो यह छोटी वृत्ति है, वह भी थोड़ी-थोड़ी क्रमशः तीन आचार्यों ने लिखी। अतः एक कथा सी बनने से यह 'डुपडुपिका' ही कहलायी। उक्त तीनों टीकाओं के अतिरिक्त आचार्य मलयगिरि (अनुपलब्ध), चिरंतनमुनि, वाचक यशोविजय, गणि यशोविजय प्रणीत वृत्तियाँ भी तत्त्वार्थभाष्य पर उपलब्ध हैं।
इस तरह तत्त्वार्थसूत्र इतना सारभूत ग्रंथ है कि इसका प्रभाव मात्र टीकाओं तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के परवर्ती साहित्य पर भी विशेष रूप से स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। यही कारण है कि प्राचीन आचार्यों ने इस ग्रंथ पर विविध प्रकार की प्रौढ़ एवं सरल दोनों तरह की टीकायें लिखकर अपने को गौरवान्वित किया।
इतना ही नहीं बीसवीं सदी के अनेक विद्वानों ने भी हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, कन्नड़, तमिल आदि अनेक भाषाओं में शताधिक टीकायें लिखकर तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्या साहित्य को समृद्ध करने में महनीय योगदान किया।