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190 Studies in Umāsvāti
is an abundance of commentaries on the Tattvārthasūtra serving as the ample proof for its profound popularity. With reference to commentaries, the late Pt. Sukhlal Sanghavi, the great savant of Jaina philosophy, has attempted a very interesting comparison and contrast of the Tattvārthasūtra with the Brahmasūtra which I would like to quote verbatim here? —
“साम्प्रदायिक व्याख्याओं के विषय में 'तत्त्वार्थाधिगम' सूत्र की तुलना 'ब्रह्मसूत्र' के साथ की जा सकती है। जिस प्रकार बहुत से विषयों में परस्पर नितान्त भिन्न मत रखने वाले अनेक आचार्यों ने 'ब्रह्मसूत्र' पर व्याख्याएँ लिखी हैं
और उसी से अपने वक्तव्य को उपनिषदों के आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, उसी प्रकार दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के विद्वानों ने तत्त्वार्थ पर व्याख्याएँ लिखी हैं और उसी से परस्पर विरोधी मन्तव्यों को भी आगम के आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इससे सामान्य बात इतनी ही सिद्ध होती है कि जैसे वेदान्त साहित्य में प्रतिष्ठा होने के कारण भिन्न-भिन्न मत रखने वाले प्रतिभाशाली आचार्यों ने 'ब्रह्मसूत्र' का आश्रय लेकर उसी के द्वारा अपने विशिष्ट वक्तव्य को दर्शाने की आवश्यकता अनुभव की, वैसे ही जैन वाङ्मय में स्थापित तत्त्वार्थाधिगम की प्रतिष्ठा के कारण उसका आश्रय लेकर दोनों सम्प्रदायों के विद्वानों को अपने-अपने मन्तव्यों को प्रकट करने की आवश्यकता हुई।
___ इतना स्थूल साम्य होते हुए भी 'ब्रह्मसूत्र' और 'तत्त्वार्थसूत्र' की साम्प्रदायिक व्याख्याओं में एक विशेष महत्त्व का भेद है कि तत्त्वज्ञान के जगत्, जीव, ईश्वर आदि मौलिक विषयों में 'ब्रह्मसूत्र' के प्रसिद्ध व्याख्याकार एक-दूसरे से बहुत ही भिन्न पड़ते हैं और बहुत बार तो उनके विचारों में पूर्व-पश्चिम जितना अन्तर दिखाई देता है; जबकि तत्त्वार्थ के दिगम्बर या श्वेताम्बर किसी भी सम्प्रदाय के व्याख्याकारों में वैसी बात नहीं हैं उनमें तत्त्वज्ञान के मौलिक विषयों में कोई अन्तर नहीं है और जो थोड़ा-बहुत अन्तर है वह भी बिल्कुल साधारण बातों में है और ऐसा नहीं कि जिसमें समन्वय को अवकाश ही न हो अथवा वह पूर्व-पश्चिम जितना हो। वस्तुतः जैन तत्त्वज्ञान के मूल सिद्धान्तों के सम्बन्ध में दिगम्बर व श्वेताम्बर सम्प्रदायों में खास मतभेद पड़ा ही नहीं, इससे उनकी तत्त्वार्थ-व्याख्याओं में दिखाई देने वाला मतभेद बहुत गम्भीर नहीं माना जाता।"
Having made this relevant introductory observation, now I come to the main theme of the paper. The Tattvārthasūtra, consisting of ten chapters, deals with the theory of knowledge in its first chapter alone. Unlike the Nyāyasūtra of Gautama,