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इर्यापथ भक्ति (Iryapatha Bhakti) निःसंगोऽहं जिनानां सदन-मनुपमं त्रिःपरीत्येत्य भक्त्या। स्थित्वा नत्वानिषद्यो-च्चरण - परिणतोऽन्तः शनै-हस्त-युग्मम्।। भाले संस्थाप्य बुद्धया मम, दुरित-हरं कीर्तये शक्र-वन्धम्। निन्दा-दूरं सदाप्यं क्षय-रहित-ममुं ज्ञान-भानुं जिनेन्द्रम्।।।।।
(अह) मैं (निःसंग) मन-वचन-काय से शुद्ध होकर अथवा संसार संबंधी सुखों की अभिलाषा/इच्छा से रहित, निस्पृह हुआ (भक्त्या) भक्ति से (जिनानां अनुपमं सदन) जिनेन्द्र देव के उपमा रहित जिनालय (एत्य) आकर (त्रिःपरीत्य) तीन प्रदक्षिणा देकर (स्थित्वाप) खड़ा होकर, पश्चात् (नत्वा) नमस्कार करके (निषद्य) बैठकर (अन्तः शनैः उच्चरण परिणतः) मन में धीरे/मन्द स्वर से उच्चारण करता हूँ (हस्तयुग्मम्) तथा दोनों हाथों को (भाले संस्थाप्य) ललाट पर रखकर (बुद्धया) बुद्धिपूर्वक (मम) मेरे (दुरिहतर) पाप को हरने वाले (शक्रवन्ध) इन्द्रों से वन्दनीय (निन्दादूर) निन्दा से दूर/निर्दोष (क्षयरहित) अविनाशी (ज्ञानभानु) ज्ञानसूर्य (आप्त) वीतरागी-सर्वज्ञ-हितोपदेशी ऐसे (अमु) इन जिनेश्वर की (सदा) सर्वदा-हमेशा (कीर्तये) स्तुति करता हूँ।
I hereby enter into the abode of Jina (Jinālaya) after purifying my mind, speech and body and after abandoning all the desires and sensual pleasures, devotionally and desirelessly moves around the incomparable temple of Jina thrice, bow down before the deity and there after; I take my seat and start resiting this song slowly. I here by with folded hands praise and eulogise indestructible, sun of knowledge, non-attached, omniscient and benivolent shri Jinendra dev, who is worshippable by Indras/ lords of gods-and is devoid of eighteen faults.
श्रीमत् पवित्र-मकलंक-मनन्त-कल्पम्, स्वायंभुवं सकल-मंगलमादि-तीर्थम्। नित्योत्सवं मणिमयं निलयं जिनानाम्, त्रैलोक्य-भूषणमहं शरणं प्रपद्ये।।2।।
(श्रीमत्) शोभायुक्त, परम ऐश्वर्य सहित, (पवित्रम्) पवित्र, (अकलडकम्) निर्दोष, कलंक रहित, (अनन्त कल्पम्) अनन्त काल से जिनकी रचना चली आ रही है, (सकल मंगलम्) समस्त जीवों के लिये मंगल रूप, (आदितीथ) अद्वितीय तीर्थ स्वरूप, (नित्योत्सव) निरन्तर होने वाले उत्सवों युक्त, (मणिमय) मणियों से निर्मित (त्रैलोक्यभूषण) तीन लोकों के आभूषण रूप (जिनानाम्) जिनेन्द्र देव के (स्वायंभुवं निलप) अकृत्रिम आलय-"जिनालयों" की (शरणं प्रपद्ये) शरण को प्राप्त होता हूँ।
Gems of Jaina Wisdom-IX – 13