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stayed in the Uttarafalguni naksatra, when auspicious settelites were in their high positions respectively, when there was auspicious sign of zodiac when the moon stayed in the Hast naksatra and the moon light of chaitra was beautifying the earth. The would be Tirthankar babe Mahāvira was giving the ceremonial bath by celestial beings and lords of celestial beings with the celestial pots studded with jewels in the morning of the fourteenth day of the bright fortnight of the chaitra month.
भुक्त्वा कुमारकाले त्रिशद्वर्षाण्यनंत गुणराशिः । अमरोपनीत भोगान्सहसाभिनिबोधियोऽन्येद्युः ।। 7 ।। नानाविधरूपचितां विचित्रकूटोच्छितां मणिविभूषाम् । चन्द्रप्रभाख्यशिविकामारुह्य पुराद्विनिः क्रान्तः ॥ 8 ।। मार्गशिरकृष्णदशमी हस्तोत्तर मध्यमाश्रिते सोमे । षष्ठेन त्वराहे भत्त्केन जिनः प्रवव्राज ।। 9 ।।
जो वर्धमान स्वामी (अनन्त - गुण-राशिः) अनन्त गुणों के राशि स्वरूप अर्थात् अनन्त गुणों के स्वामी थे; वे वीरं प्रभु (कुमारकाले) कुमार अवस्था में (त्रिशंत् वर्षाणि) तीस वर्षों तक (अमर - उपनीत-भोगान - भुक्त्वा) देवों के द्वारा लाये गये भोगों को भोगकर (सहसा - अभिनिबोधितः) अचानक प्रतिबोध/वैराग्य को प्राप्त हो गये तथा ( अन्येद्युः) दूसरे दिन (नानावधि रूपचितां) विविध प्रकार के चित्रों से चित्रित (विचित्र - कूटोच्छ्रितां) विचित्र ऊँचे-ऊँचे शिखरों से ऊँची / विशाल (मणि- विभूषाम् ) मणियों से विभूषित, सुशोभित ऐसी (चन्द्रप्रभाख्य-शिविकम् - आरुह्य ) चन्द्रप्रभा नामक पालकी पर आरोहण करके / चढ़कर के (पुरात विनिष्क्रान्तः) कुण्डपुर नगर से बाहर निकल गये । (मार्ग - शिर - कृष्ण -दशमीहस्तोत्तर-मध्यमाश्रिते सोमे) मगसिर/ अंगहन / मार्गशिर माह में कृष्ण पक्ष की दशमी के शुभ दिन जब चन्द्रमा हस्तोत्तर नक्षत्र पर था, उन्होंने (षष्ठेन भक्तेन तु अपराह्ने जिनः प्रवव्राज ) दो उपवास का नियम ले अपराह्न काल में जैनेश्वरी निर्ग्रन्थ दीक्षा को धारण किया ।
Lord Mahāvira was adorned with infinite merits, he enjoyed celestial enjoyments proguided by celestial beings during a period of thirty years i.e. during his kumāra kāla (period of princedom). Thereafter he suddenly became
Gems of Jaina Wisdom-IX 125