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________________ ४६ X++++++0+ प्रकीर्णक पुस्तकमाला 'श्रीमूलसारूपी आकाशमें जो चन्द्रमाके समान हुए हैं, भारतदेश में आगेको तीर्थंकर होनेवाले हैं और जिन्हें चारण ऋद्धिकी प्राप्ति थी तपके प्रभावसे आकाश में चलनेकी ऐसी शक्ति उपलब्ध हो गई थी जिसके कारण वे दूसरे जीवोंको बाधा न पहुँचाते हुए, शीघ्रता के साथ सैंकड़ों कोस चले जाते थे- वे 'समन्तभद्र' नामके मुनिराज जयवन्त हों - उनका प्रभाव स्थायी रूपसे हमारे हृदयपर अङ्कित होवे ।' 00++20+++ कुवादिनः स्वकान्तानां निकटे परुषोक्तयः । समन्तभद्र - यत्यग्रे पाहि पाहीति सूक्तयः ॥ . — अलङ्कारचिन्तामण, श्रीश्रजितसेनाचार्यः ' ( समन्तभद्र - काल में ) प्राय: कुवादीजन अपनी स्त्रियोंके सामने तो कठोर भाषण किया करते थे- उन्हें अपनी गर्यो क्तियाँ अथवा अपनी बहादुरी के गीत सुनाते थे - परन्तु जब योगी समन्तभद्र के सामने आते थे तो मधुरभाषी बन जाते थे और उन्हें 'पाहि पाहि' - रक्षा करो रक्षा करो, अथवा आप ही हमारे रक्षक हैंऐसे सुन्दर मृदु-वचन ही कहते बनता था । यह सब स्वामीसमन्तभद्रके असाधारण व्यक्तित्वका प्रभाव था ।' श्रीमत्समन्तभद्राख्ये महावादिनि चागते । कुवादिनोऽलिखन्भ्रमिमंगुष्ठैरानताननाः ॥ - अलंकारचिन्तामणौ, श्रीश्रजितसेनः 'जब महावादी श्रीसमन्तभद्र ( सभास्थान आदिमें) आते थे तो कुवादीजन नीचा मुख करके अंगूठोंसे पृथ्वी कुरेदने लगते थे- अर्थात् उन लोगों पर — प्रतिवादियों पर — समन्तभद्रका इतना - ®++++96++96++96++6 +++++++++++.
SR No.022364
Book TitleSatsadhu Smaran Mangal Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year94
Total Pages94
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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