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________________ है उसमें यश अपयश नाम कर्म भाग लेते है । आदेय नाम कर्म से ग्राह्य वचन वाला , अनादेय से धिक्कार पात्र बनता है, सुस्वर के उदय से कोयल सा कंठ और दुस्वर से कौओ सा कर्कश अवाज प्राप्त होता है। स्वर्ग में दिव्य शरीर की प्राप्ति देवगति से पशुपक्षी का अवतार तिर्यञ्च गति से मनुष्य देह की प्राप्ति मनुष्य गति से और नरक की आतंक/ . पीडा शरीर की प्राप्ति नरक गति से होती है । शंकाकार - नरक स्वर्ग प्रत्यक्ष न दिखने से मानना अयोग्य है ? समाधान - 'जैसा कार्य करे वेसा फल दे भगवान' इस न्याय से यदि एकबार खून करने से उसके मौत की सजा निश्चित हो जाती है, पुनः पुनः खून करने वाले की क्या गति होगी मनुष्य की तो एक बार हि मृत्यु संभवित तो फिरआगे के दंड का भुगतान कहां करेगा ? बस उसके लिए सतत दुःखदायी पुनः पुनः शरीर भेदन छेदन जहां होता है एसा कोई भव-अवतार होना चाहिए वही है नरक गति । स्वर्ग - उसी प्रकार रात दिन धर्म ध्यान करने वाले व्यक्ति को सुख सातत्य मिलना चाहिए, मृत्यु लोक में तो धनवान भी अनेक दुःखो से पीडीत होते है । एक दर्द मिटा न मिटा उतने में दूसरा दर्द उगने लगता है अतः उस पुण्य के भुगतान के लिये निरंतर सुख देने वाली गति अवश्य होनी चाहिये वही है स्वर्ग गति । आपघात, खून के किस्सो में जो व्यक्ति सरल तपस्वी मरते समय शुभ भावना वाला होता है, वह व्यंतर योनि को प्राप्त करता है । जिसे हम भूत प्रेत रूप में जानते / मानते है। स्वर्ग में भी जीव की उत्पत्ति मृत्युलोक से मृत्यु पाकर जीव स्वर्ग में उपपात सभा में रही हुई सेज उपर आत्मा जाती है और कुछ ही क्षणो में नोजुवान के रूप में आलस मरोडकर खडा हो जाता है और जीवनभर पदार्थ प्रदीप 104
SR No.022363
Book TitlePadarth Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnajyotvijay
PublisherRanjanvijay Jain Pustakalay
Publication Year132
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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