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अयोगव्यवच्छेदः । अथ सोही स्तोत्र (प्रकृतिपरवादव्यसनिनः) स्वभावही जिनोंका परके कथनमें वाद करनेका है, अर्थात् अपने माने देव और तिनके कथनमें जिनको आग्रह है कि, हमने तो यही मानना है, अन्य नहीं, ऐसे व्यसनी पुरुष इस स्तोत्रकों (परनिन्दां) परनिंदारूप अवगाहन करो; स्तुतिकारने परदेवोंकी निंदारूप यह स्तोत्र रचा है, ऐसें मानो, अपने माननेका कदाग्रह होनोसें, परंतु हे जिनवर! (परीक्षाक्षमाधियाम्) परीक्षा करनेमें समर्थ बुद्धिवाले (अरक्तद्विष्टानां) रागद्वेषरहितोंकों, अर्थात् किसी मतमें जिनोंका राग पक्षपात नहीं है, और किसी मतमें जिनोंकों द्वेषसें अरुचि नहीं है, ऐसे परीक्षापूर्वक सत् असत् वस्तुका प्रमाणसें निर्णय करनेवालोंकों (अयं) यह (तत्त्वालोकः) तत्त्वप्रकाशक स्तव-स्तोत्र (स्तुतिमयं-उपाधिं) स्तुतिमय उपाधिकोंस्तुतिमय धर्मचिंताकों (विधृतवान्) धारण करता है. ॥ ३२ ॥ इतिश्रीहेमचंद्रसूरिविरचितमयोगव्यवच्छेदिकाद्वात्रिंशिकाख्यं श्री महावीर स्वामि स्तोत्रं बालावबोधसहितं समाप्तम् ॥
तत्ससमाप्तौ च समाप्तोयं तृतीयः स्तम्भः ॥ श्रीमत्तपोगणेशेन विजयानंदसूरिणा ॥ कृतो बालावबोधोऽयं परोपकृतिहेतवे ॥ १ ॥ इन्दुबाणाङ्कचन्द्राब्दे (१९५०) माघमासे सिते दले । पञ्चम्यां च तिथौ जीवघटेपूर्तिमगात्तथा ॥ २ ॥ इतिश्रीमद्विजयानंदसूरिविरचिते तत्त्वनिर्णयप्रासादे अयोगव्यवच्छेदकवर्णनोनाम तृतीयः स्तंभः ॥ ३ ॥