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________________ ४० अयोगव्यवच्छेदः माध्यस्थमास्थाय परीक्षकाये मणौ च काचे च समानुबन्धाः ॥ २७ ॥ व्याख्या:- हे नाथ! (सुनिश्चितं) हमारे निश्चित करा हुआ वर्ते है कि. (ते) वे जन (मत्सरिणः) मत्सरी (जनस्य) पुरुषकी (मुद्रां) मुद्राकों (न) नहीं (अतिशेरते) उल्लंघन करते हैं, अर्थात् ऐसे जनभी मत्सरियोंकी पंक्तिमेंही निश्चित करे हुए हैं; कैसे हैं वे जन ? (ये) जे. (परीक्षकाः) परीक्षक होके और (माध्यस्थ्यम्-आस्थाय) माध्यस्थपणेको धारण करके (मणौ) मणिमें (च) और (काचे) काचमें (समानुबन्धाः) सम अनुबंधवाले हैं। ____ भावार्थ:- माध्यस्थपणेकों धारण करके, जे पुरुष अपने आपकों परीक्षक मानते हैं कि, हम पक्षपातरहित सच्चे परीक्षक हैं; परंतु काचके टुकडेंकों, और चंद्रकांतादि मणियोंकों मोलमें, वा गुणोंमें समान मानते हैं, वे परीक्षक नहीं हैं, किंतु वे भी मत्सरि पुरुषकी मुद्रावालेही हैं। ऐसेंही जिनोंने माध्यस्थपणा और परीक्षक अपने आपकों माने हैं, फेर काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, मैथुनादिरहित सर्वज्ञ वीतरागकों, और पूर्वोक्त कामादिसहित अज्ञानी सरागीकों एक समान मानते हैं, इस वास्ते वे परीक्षक नहीं, किंतु वेभी मत्सरी ही हैं ॥ २७ ॥ अथ स्तुतिकार प्रतिवादीयोंसमक्ष अवघोषणा करते हैं। इमां समक्षं प्रतिपक्षसाक्षिणा मुदारघोषामवघोषणां ब्रुवे । न वीतरागात्परमस्ति दैवतं न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थितिः ॥ २८ ॥
SR No.022359
Book TitleAyogvyavacched Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaypradyumnasuri
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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