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________________ १७ तत्त्वनिर्णय प्रासादे प्रकृतियां क्षय करी है, और अष्टादश दूषणोंसे रहित हुए है, केवल ज्ञान और केवल दर्शन करके संयुक्त है, चौत्रीस अतिशय और पैंत्रीस वचन अतिशय करके सहित है, जीवन मोक्षरूप है, महामाहन, १, महागोप, २, महानिर्यामक, ३, महासार्थवाह, ४, येह चारों जिनकों उपमा है, परोपकार निरपेक्ष अनुग्रहके वास्ते जिनोंका भव्य जनोंकेतांइ उपदेश है, अरिहंतके विना अन्य कोइ यथार्थ उपदेष्टा शरणभूत नही हैं; क्योंकि, इनोंनेही आदिमें जगत्वासीयोंको उपदेशद्वारा मोक्षमार्ग प्राप्त करा है ॥ १॥ दूसरा शरण सिद्धोंका है, जे अष्ट कर्मकी उपाधिसे रहित है, सदा आनंद और ज्ञान स्वरूप है, स्वस्वरूपमें जिनोंका अवस्थान है, अमर, अचर अजर, अमल, अज, अविनाशी, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सदाशिव, पारंगत, परमेश्वर, परमब्रह्म, परमात्मा, इत्यादि अनंत तिनके विशेषण है, ऐसे सिद्ध परमात्मा शरणभूत है; जे कर एसे सिद्ध न होवे तब तो अरिहंतके कथन, करे मार्गकों भव्य जन काहेकों अंगीकार करे? और सिद्धांके विना आत्माका शुद्ध स्वरूप केसें जाना जावे ? इस वास्ते सिद्ध आत्मस्वरूप के अविप्रणासके हेतु है, इस वास्ते शरणरूप है ॥ २ ॥ तीसरा शरण साधुओंका है। साधु कहनेसें आचार्य, उपाध्याय और साधु, इन तीनोंका ग्रहण है। जे कर आचार्य उपाध्याय न होते तो, अस्मदादिकांको अरिहंतका उपदेश कौन प्राप्त करता? और साधु न होते तो जगत्वासीयांको मोक्षमार्ग पालन करके कौन दिखाता? और मौक्षमार्गमें प्रवर्त्त हुए भव्य जनोंकों साहाय्य कौन करता ? इस वास्ते साधु शरणभूत है. ॥ ३ ॥ चौथा शरण केवल ज्ञानीका कथन करा हुआ धर्म है; क्योंकि विना धर्मके पूवोक्त वस्तुयोंका अस्मदादिकांकों कौन बोध करता?
SR No.022359
Book TitleAyogvyavacched Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaypradyumnasuri
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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