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________________ ४९८ नवतत्त्वसंग्रहः एवं एकैक वृद्धि असंख्येय गुण हीन तां लगे कहना जां लगे ५० सिद्धा. पंचास पंचास सिद्धाथी ५१ सिद्धा अनंत गुण हीन, बावन बावन सिद्धा अनंत गुण हीन, एवं एकैक हानि तां लगे कहनी जां लगे १०८ आठ आठ सिद्धा अनंत गुण हीना. ____तथा जिहां जिहां वीस वीस सिद्धा तिहां एकैक सिद्ध सर्वसे घणे १, द्वौ द्वौ सिद्धा संख्येय गुण हीन २, एवं तां लगे कहना जां लगे पांच पांच सिद्धा. ___ अथ छ छ सिद्धा असंख्येय गुण हीना. एवं दश लगे कहना. ग्यारेसे लइ अग्रे अनंत गुण हीना २० सुधी कहेवू. तथा अधोलोक आदिमे पृथक्त्व वीस सिद्धा. तिहां पहिले चौथे भागमे संख्येय गुण हीना, दूजे चौथे भागमे असंख्येय गुण हीना, तीजे चौथे भागसें लेकर आगे सर्वत्र अनंत गुण हीना. तथा जिहां हरिवर्ष आदिमे दश दश सिद्धा तिहां तीन लगे तो संख्येय गुण हीन, चौथे पांचमे असंख्येय गुण हीन, ६ से लेकर सर्वत्र अनंत गुण हीना. जिहां पुनः अवगाहना यवमध्य ते अनुत्कृष्टी आठ तिहां चार लगे संख्येय गुण हानि तिस आगल आठ सुधी अनंत गुण हानि. जिहां वली ऊर्ध्वलोक आदिमे चार सीझे एकैक सिद्धा सबसे बहुत, दो दो सिद्धा असंख्येय गुण हीना, तीन तीन सिद्धा अनंत गुण हीना, चार चार सिद्धा अनंत गुण हीना. जिहां लवण आदिकमे दो दो सिद्धा तिहां एकैक सिद्धा बहुत, दो दो सिद्धा अनंत गुण हीना. इति सन्निकर्ष द्वार संपूर्ण. शेष द्वार सिद्धप्राभृत टीकासे जानने. श्री ६ परमपूज्य महाराज आचार्य श्रीमलयगिरिकृत श्रीनंदीजीकी वृत्तिथी ए स्वरूप लिख्या. इति नवतत्त्वसंकलनायां मोक्षतत्त्वं नवमं सम्पूर्णम्. अथ ग्रंथसमाप्ति सवईया इकतीसाआदि अरिहंत वीर पंचम गणेस धीर भद्रबाहु गुर फी(फि) सुद्ध ग्यान दायके जिनभद्र हरिभद्र हेमचंद्र देव इंद अभय आनंद चंद चंदरिसी गायके मलयगिरि श्रीसाम विमल विग्यान धाम ओर ही अनेक साम रिदे वीच धायके 'जीवन आनंद करो सुष(ख)के भंडार भरो आतम आनंद लिखी चित्त हुलसायके १ वीर विभु वैन ऐन सत परगास दैन पठत दिवस रैन सम रस पीजीयो मै तो मूढ रिदे गूढ ग्यान विन महाफूढ कथन करत रूढ मोपे मत षीजीयो जैसे जिनराज गुरु कथन करत धुरु तैसे ग्रंथ सुद्ध कुरु मोपे मत धीजीयो मै तो बालख्यालवत् चित्तकी उमंग करी हंसके सुभाव ग्या(ज्ञा)ता गुण ग्रह लीजीयो २ ग्राम तो 'वि(बि)नोली' नाम 'लाल चिरंजी व रेस्याम भगत सुभाव चित्त धरम सुहायो है १. जीवनराम ए ग्रन्थकर्ताना स्थानकवासी गुरुनु नाम छ । २-३. लाला चिरंजीलाल अने लाला श्यामलाल ए बंने श्रावको भक्त अने समजदार हता।
SR No.022331
Book TitleNavtattva Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
PublisherSamyagyan Pracharak Samiti
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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