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________________ ४८.२ नवतत्त्वसंग्रहः २१६. जुगुप्सा प्रक्षेपे षट्. भांगा २१६. उभय प्रक्षेपे सात हुइ भंग २१६. सर्व एकत्र करे ८६४. ए अपूर्वकरणना हेतु. ८ बादरका यंत्रक—१।१, ४।९. कषाय ४, योग ९. द्विकसंयोगे ३६. ए द्विकसमुदाय. बादर पांच बंधकके वेदका पिण उदय है, इस कारण ते वेद प्रक्षेपे. तीन हेतु भांगे त्रिगुणे करे १०८. ए तीन हेतुसमुदाय. सर्व एकत्र करे १४४ भंग. ए बादर कषायना हेतु. सूक्ष्म एक कषाय एकैक योगसे नव योग साथ ९ द्विकयोग. उपशांतके नव हेतु. एवं क्षीणके नव हेतु. सयोगीके सात हेतु. अथ अग्रे 'मोक्ष' तत्त्व लिख्यते. प्रथम तीन श्रेणी रचना. (१७९) अथ गुणश्रेणि रचनायन्त्रं शतकात् (१८०) उप( शम) श्रेणियन्त्रम् आवश्यक निर्युक्तेः सम्यक्त्वप्राप्ति आदि इ सम्यक्त्व प्राप्ति संज्वलन लोभ अप्रत्याख्यान लोभ प्रत्याख्यान लोभ संज्वलन माया देशविरति अप्रत्याख्यान माया प्रत्याख्यान माया सर्वविरति अनंतानुबंधिविसंयोजन दर्शनमोहनीयक्षय उप (शम) श्रेणि चढता उपशांतमोह ११ मे १ २ ३ ४ ५ ६ ७ सर्व गुणस्थानना विशेषबंधहेतुसंख्या ४६८२७७० इति गुणस्थानकमे बंध हेतु समाप्त. इति श्रीआत्मारामसंकलता (ना ) यां बन्धतत्त्वमष्टमं सम्पूर्णम्. ८ ९ १० ११ क्षपक श्रेणि चढता क्षीणमोह निर्जरा सयोगी केवली अयोगी केवली स्तोक १ असंख्य गुणा असंख्य गुणा असंख्य गुणा असंख्य गुणा असंख्य गुणा असंख्य गुणा असंख्य गुणा असंख्य गुणा असंख्य गुणा असंख्य गुणा काल अल्प बहुत्व असंख्य ११ असंख्य १० असंख्य ९ असंख्य ८ असंख्य ७ असंख्य ६ असंख्य ५ असंख्य ४ असंख्य ३ असंख्य २ स्तोक १ संज्वलन मान अप्रत्याख्यान मान प्रत्याख्यान मान संज्वलन क्रोध अप्रत्याख्यान क्रोध प्रत्याख्यान क्रोध पुरुषवेद हास्य रति शोक अरति भय जुगुप्सा) स्त्री नपुंसक मिश्रमोह सम्यक्त्वमोह मिथ्यात्वमोह अनंतानुबंधि अनंता अनंता अनंतानुबंधि क्रोध मान माया लोभ क्षपक श्रेणिस्वरूपयन्त्र आवश्यकनिर्युक्ति थकी लिखतोऽस्ति (लिखितमस्ति ). चरम समये पांच ज्ञानावरणीय ५, च्यार दर्शनावरणीय ४, पांच अंतराय ५, एवं सर्व १४ षेपे. बार स्थान दो २ समये बाकी रहे तदा पहिले समय निद्रा १, प्रचला १, देवगति १, देवानुपूर्वी १, वैक्रिय शरीर १, वैक्रिय अंगोपांग १, प्रथम संहनन वर्जी ५ संहनन, एक संस्थान वर्जी पांच संस्थान ५, तीर्थ (कर) नाम १, आहारकद्विक २ एवं सर्व १९ प्रकृति पहिले समय षेपवे. जो तीर्थंकर होय तो १९ प्रकृति न होय तो तीर्थंकर (नामकर्म) टाली १८ प्रकृति षेपइ ए प्रथम.
SR No.022331
Book TitleNavtattva Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
PublisherSamyagyan Pracharak Samiti
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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