________________
१६
नवतत्त्वसंग्रहः
पाँच में वर्ग के घन प्रमाण ।
गर्भज मनुष्य भवनपति
प्रतरके असंख्यात में भाग 'नभःप्रदेश| अंगुल प्रमाण श्रेणी के प्रथम वर्गमूल के तुल्य जानने।
असंख्यात में भाग प्रदेश प्रमाण । प्रतर के असंख्यात में भाग । संख्याते योजन प्रमाण खंड एकेक व्यंतरे करी
अपहरता संपूर्ण प्रतर अपहरे । इहां संख्याते जोजन
प्रमाण खंड चतुरस्र। प्रतर के असंख्यात में भाग।
२५६ अंगुल का खंड चउरस । तितना खंड एके क जोतिषी करके अपहर्या संपूर्ण प्रतर
अपहराय । घनीकृत सर्वत्र है। प्रतर के असंख्यात में भाग ।
___ अंगुल प्रमाण चौडी सात रजू प्रमाण लंबी श्रेणी तिसकी असत् कल्पना २५६ श्रेणी, तिसका प्रथम वर्गमूल १६ का, दूजा वर्गमूल ४ का, तीजा २ का। तीजे वर्गमूलकू दूजे वर्गमूलसू गुण्या ८ होइ। परमार्थथी तो असंख्याती है। इम कल्पनास्वरू(प) ८ श्रेणि प्रमाण चौडी, सात रजू लंबी सूची नीपजे। तिस सूचीमें जितने आकाशप्रदेश है तितने सौधर्म ईशान देवलोक के देवता
है वर्तमान काल में । इत्यलम्। श्रेणी के असंख्यात में भाग है।
__ श्रेणिका ग्यारमा वर्गमूल काढी में तिस ही श्रेणिके प्रदेशाकं ग्यारमें वर्गमल का भाग दीये जो हाथ लगे तितने देवता है । एवं जितर(ना)मा
वर्गमूल होवे तिस ही का भाग । श्रेणी के असंख्यात में भाग है। श्रेणिका ९ मा मूल. श्रेणिके प्रदेशो भाग। श्रेणी के असंख्यात में भाग है। श्रेणि ७ स्वमूल. भाग उपरवत् । श्रेणी के असंख्यात में भाग है। श्रेणि ५ स्वमूल. भाग देना उपरवत् । श्रेणी के असंख्यात में भाग है। श्रेणि ४ स्वमूल. भाग उपरवत् दे[ले]णा । श्रेणी के असंख्यात में भाग है। पल्योपम के असंख्यात में भाग समयप्रमाण । श्रेणी के असंख्यात में भाग है। पल्योपम के बृहत्तर असंख्यात में भाग । श्रेणी के असंख्यात में भाग है। पल्योपम के अतिबृहत्तम असंख्यात में भाग। संख्याते ।
संख्याते, क्षेत्रह्स्वत्वात् ।
सनत्कुमार महेन्द्र २
ब्रह्मदेव लांतक
महाशुक्र
सहस्त्रार
आनतादि ४ ग्रैवेयक ९ अनुत्तर ४ सर्वार्थसिद्ध
१. आकाश-प्रदेश।