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नवतत्त्वसंग्रहः
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___ गोत्रके सात भंग है-सो पहिला तेजस्काय वायुकायमे, दूजा मिथ्यात्व सास्वादनमे, तीजा मिथ्यात्व सास्वादनमे, चौथा १मे, रमे, ३मे, ४मे, ५मे, पांचमा भंग एकसे दस तक गुणस्थानोमे, छठा उपशमथी अयोगी द्विचरम समय, ७ मा अयोगीके अंत समयमे कहो. अथ सुगमताके वास्ते यंत्र लिख्यतेअंकसंख्या | १ | २ | ३ | ४ | ५ ६
बंध | नीच | नीच | नीच | उंच | उंच उदय | नीच | नीच | उंच | उंच | उंच | उंच | उंच सत्ता | नीच | नीच | नीच | नीच |
उंच | उंच | उंच |
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६५/ गोत्रके भंग
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२,३ | ४,५
५ | ५ | ५
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६ अंतरा भंग १ | १ | १ | १ | १ | १ | १ | १ | १ | १ |अंत| अंत |
| | १ का १] । ६७ | एक जीव रज्जु | १४ | १२ | ८ | ८ | ६ | ७ | → | ए | व | म् | | →
स्पर्श | रज्जु | रज्जु | रज्जु | रज्जु| रज्जु | रज्जु
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ऊन
दूजे गुणस्थानवाला बारां रज्जु स्पर्शे तिसकी युक्ति लिख्यते-'स्वयंभूरमण' समुद्रके पश्चिमका मत्स्य सास्वादनवाला मरीने सातमी नरककी पृथ्वीमे अथवा घनोदधिमे समश्रेणि जाइने पीछे तिरछा पूर्वकू जावे साढे तीन रज्जु, पीछे कूणेमे जावे अढाइ रज्जु, एवं १२ रज्जु होइ घनोदधिमे वा पृथ्वीमे उपजे. तथा चोक्तं पञ्चसंङ्ग्रहे (द्वितीये बन्धकद्वारे गा० ३२)-गाथा
"'छट्ठाए (छट्ठीणं ?) नेरइउ(ओ) सासणभावेण एइ तिरिमणु[लो]ए ।
लोगंतनिक्खुडेसु जंतते (तिने) सासणगुणट्ठा(त्था) ॥" १. छाया-षष्ठ्या नैरयिकः सास्वादनभावेन एति तिर्यङ्मनुष्ये(षु) ।
लोकान्तनिष्कूटेषु यान्त्यन्ये सास्वादनगुणस्थाः ।।