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________________ अधिकाधिक पाप ही करती है, क्योंकि उनका सम्पूर्ण जीवन हिंसादि पापों पर ही निर्भर है। कदाचित् पुण्ययोग से मनुष्य का जीवन भी मिल जाय, परन्तु यदि पर्याप्तावस्था पंचेन्द्रिय-पटुता तथा दीर्घ आयुष्य न मिले तो भी जीवात्मा के लिए प्रात्म-विकास करना कठिन हो जाता है। कदाचित् मनुष्य-जीवन में दीर्घ आयुष्य भी मिल जाय परन्तु जिनधर्म की प्राप्ति न हो तो पुनः सब कुछ बेकार हो जाता है और प्रात्म-विकास के लिए कोई अवकाश ही नहीं रहता है। पंचेन्द्रिय-पटुता और दीर्घ आयुष्य के साथ यदि तीव्र मिथ्यात्व का उदय हो तो जीवन में पाप की प्रवत्ति अधिक तीव्र बन जाती है। शिकार, मांसाहार, शराब, जुना, चोरी, परस्त्रीगमन और वेश्यागमन जैसे भयंकर पाप मनुष्य ही तो करता है। मिथ्यात्व के तीव्र उदय में सद्धर्म आचरण की न तो प्रेरणा मिलती है और न ही उसे स्वीकार करने की इच्छा होती है। इस प्रकार मनुष्य-जीवन तक की अवस्था पाने के बाद भी महामोह से मूढ़ बनी आत्मा पुनः अपने विराट् संसार का सर्जन कर लेती है। कुछ संयोगवश द्रव्यचारित्र मिल जाय, परन्तु यदि प्रात्मा पर से मोह का साम्राज्य नहीं हटा हो तो भी आत्मा पुनः अपने भावी अनन्त संसार का ही सर्जन करती है। सुधारस-६ शान्त सुधारस विवेचन-८१
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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