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________________ पापोदय के कारण वे अत्यन्त ही दुःखी हैं । इस भू-लोक पर मनुष्य और तिर्यंचों की जो भयंकर पीड़ाएँ हैं, उनसे प्रनन्त गुरणी पीड़ाएँ नरक के जीव प्रतिक्षरण भोग रहे हैं। का वर्णन करना अशक्य है । एक क्षण भर के जीवों को शान्ति नहीं है । उनकी पीड़ानों लिए भी उन । तिर्यंच जीव भी कहाँ सुखी हैं । वे भी भूख-प्यास और मानवीय अत्याचारों से भयंकर दुःखी होते हैं । तीव्र भूख लगी हो किन्तु उनके भाग्य में भोजन नहीं, तीव्र प्यास लगी हो और उनके भाग्य में पानी नहीं । इस संसार में कहीं पर निगोद के जीव सतत जन्म-मररण की भयंकर पीड़ा भोग रहे हैं । अपने एक श्वासोच्छ्वास में तो उनका १७ बार जन्म, १७ बार मरण और १८वीं बार जन्म हो जाता है । एक दो घड़ी के काल में निगोद के जीव के ६५५३६ भव हो जाते हैं । निरन्तर जन्म-मरण की पीड़ा के कारण उन जीवों की स्थिति कितनी दयनीय है ? और बेचारे ! वे अव्यवहारराशि के जीव ! अनादिकाल से वे निगोद की भयंकर पीड़ा को ही सहन कर रहे हैं, इतनी पीड़ा सहने के बाद भी उनका तनिक विकास नहीं ! .... और वे अभव्य आत्माएँ ! ! ! कभी भी मुक्ति पाने वाली नहीं हैं और न ही उन्हें कभी मुक्ति की अभिलाषा होने वाली है । अतः उनकी भी स्थिति कितनी दयनीय है ? इस प्रकार यह संसार जीवों की विचित्र अवस्थाओं से प्रति दारुरण ही है । शान्त सुधारस विवेचन- ६७ O
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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