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________________ क्वचन तविषमरिणमन्दिर ___ रुदितोदितरूपम् । घोरतिमिरनरकादिभिः , क्वचनातिविरूपम् , विनय० ॥ १५२ ॥ क्वचिदुत्सवमयमुज्ज्वलं , जयमङ्गलनादम् । क्वचिदमन्द हाहारवं , पृथुशोक-विषादम् , विनय० ॥ १५३ ।। अर्थ-यह लोकाकाश एकस्वरूपी होते हुए भी इसमें पुद्गलों के द्वारा विविधता की हुई है। कहीं पर स्वर्ण के शिखर वाला उन्नत मेरुपर्वत है तो कहीं पर अत्यन्त भयंकर खड्डे भी हैं ।। १५१ ॥ अर्थ-कोई स्थल देवताओं के मणिमय मन्दिरों से सुशोभित है तो कुछ स्थल महाअन्धकारमय नरकादि से भी अति भयंकर हैं ।। १५२ ।। अर्थ-कहीं पर जय-जयकार के मंगल नाद से व्याप्त उत्सवमय उज्ज्वलता है तो कहीं पर भयंकर शोक और विषादयुक्त हाहाकारमय वातावरण है ।। १५३ ।। विवेचन लोकाकाश की विचित्रता लोकाकाश अपने स्वरूप में एक समान होने पर भी जीव और पुद्गल की गतिविधियों से उसमें अनेक भेद पड़ते हैं । शान्त सुधारस विवेचन-६४
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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