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________________ एकाकाभावनाष्टकम् विनय ! विभावय शाश्वतं , हदि लोकाकाशम् । सकलचराचरधारणे परिणमदवकाशम् ।विनय० ॥ १४८ ॥ अर्थ-हे विनय ! तू अपने हृदय में शाश्वत लोकाकाश के स्वरूप का विचार कर, जिसमें सकल चराचर पदार्थों को धारण करने का सामर्थ्य रहा हुआ है ।। १४८ ।। विवेचन लोकाकाश का स्वरूप पूज्य उपाध्याय श्रीमद् विनय विजयजी महाराज अपनी आत्मा को ही सम्बोधित करते हुए फरमाते हैं कि 'हे विनय ! तू इस शाश्वत लोकाकाश का चिन्तन कर।' एक राजलोक के असंख्य योजन होते हैं। यह लोकाकाश चौदह राजलोक प्रमारण है। यह लोकाकाश समस्त धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों को अवकाश देता है। आकाश द्रव्य का यह गुण है कि वह अपने आश्रित द्रव्य को रहने के लिए स्थान देता है। शान्त सुधारस विवेचन-५६
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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