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प्रकाशक की कलम से . . . . .
महोपाध्याय श्रीमद् विनय विजयजी द्वारा विरचित और परम पूज्य अध्यात्मयोगी निःस्पृहशिरोमणि पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकर विजयजी गणिर्यश्री के चरम शिष्यरत्न मुनिप्रवर श्री रत्नसेन विजयजी द्वारा विवेचित 'शान्त सुधारस-हिन्दी विवेचन' द्वितीय भाग का प्रकाशन करते हुए हमें अत्यन्त ही हर्ष हो रहा है ।
'शान्त-सुधारस' एक अनमोल ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में महोपाध्याय श्री विनय विजयजी म. ने गेयात्मक काव्य के रूप में अनित्य आदि बारह और मैत्री अादि चार भावनामों का बहुत ही सुन्दर निरूपण किया है। प्रथम भाग में अनित्यादि नौ भावनाओं का विस्तृत वर्णन किया गया, इस द्वितीय भाग में धर्म प्रादि सात भावनानों का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत किया गया है।
___शान्त रस को रसाधिराज भी कहा गया है । अत्यन्त मधुर कण्ठ से इन गेय काव्यों को गाया जाय तो सुषुप्त चेतना में स्पन्दन हुए बिना नहीं रहता है। अनेक साधु-साध्वोजी इस ग्रन्थ रत्न को कण्ठस्थ कर इसका स्वाध्याय भी करते हैं।
विद्वद्वर्य मुनिश्री रत्नसेन विजयजी म. ने अत्यन्त ही परिश्रमपूर्वक बड़ी ही सरल व सुबोध भाषा-शैली में इस अद्भुत ग्रन्थ का हिन्दीविवेचन तैयार किया है, इस हेतु हम अापके अत्यन्त ही आभारी हैं । ग्रन्थ-प्रकाशन में सहयोगी महानुभावों का भी हम अाभार मानते हैं ।
हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारे पूर्व प्रकाशनों की भाँति यह प्रकाशन भी आपको रुचिकर लगेगा।
इस ग्रन्थ के स्वाध्याय द्वारा सभी आत्माएं मुक्ति-प्रेमी बनकर आत्मकल्याण के पथ पर आगे बढ़ें; यही शुभेच्छा है।