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________________ राजा बनकर सब पर अपना हुकम चलाती है तो कभी रंक बनकर सबके सामने दीनता प्रगट करती है। कभी दानवीर बनती है तो कभी भिखारी बनती है। राजा-रंक, गरीब-अमीर, शक्तिशाली-शक्तिहीन तथा पंडित-मूर्ख आदि के अनेक पात्र यह आत्मा इस संसार रूपी रंग-भूमि पर भजती रहती है। इस नाटक में काल, स्वभाव, कर्म, नियति और पुरुषार्थ भी काम करते रहते हैं। पुद्गल द्रव्य अचेतन होते हुए भी उसमें अत्यधिक शक्ति रही हुई है। एवं लोको भाव्यमानो विविक्त्या , विज्ञानां स्यान्मानसस्थैर्यहेतुः । स्थैर्य प्राप्ते मानसे चात्मनीना सुप्राप्यैवाऽऽध्यात्मसौख्य - प्रसूतिः ॥ १४७ ॥ अर्थ-इस प्रकार विवेक से लोक स्वरूप-का विचार बुद्धिमान् पुरुष को चित्त की स्थिरता में सहायक होता है। इस प्रकार चित्त को स्थिर करने से आत्महित होता है और अध्यात्मसुख सुलभ बनता है ।। १४७ ।। विवेचन लोकस्वरूप चिन्तन से मानसिक शान्ति इस प्रकार विवेकपूर्वक लोक के स्वरूप का चिन्तन करने से मानसिक स्थिरता प्राप्त होती है। मन की चंचलता एक बहुत शान्त सुधारस विवेचन-५४
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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