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________________ अर्थ – प्रापके प्रभाव से यह पृथ्वी बिना किसी श्रालम्बन के टिकी हुई है । इस प्रकार विश्वस्थिति के मूल स्तम्भ स्वरूप धर्म की मैं विनयपूर्वक सेवा करता हूँ ।। १३४ ।। विवेचन ग्रीष्म के ताप से तपी हुई पृथ्वी को मेघमण्डल अमृततुल्य जलसिंचन द्वारा शान्त करता है । सूर्य दिन में उगकर प्रकाश करता है और चन्द्रमा रात्रि में अन्धकार को दूर करता है । यह सब धर्म का ही प्रभाव है । यह पृथ्वी बिना किसी आलम्बन के व्यवस्थित रूप से रही हुई है । समुद्र आदि अपनी-अपनी मर्यादा में व्यवस्थित रहे हुए हैं, यह सब धर्म का ही पुण्य प्रभाव है । ऐसे धर्म का पुनः पुनः आचरण व सेवन करना चाहिए । 1 दानशीलशुभभावतपोमुखचरितार्थीकृतलोकः शरणस्मरणकृतामिह भविनां, दूरीकृतभयशोकः 3 पालय० ।। १३५ ॥ अर्थ – दान, शील, शुभ भाव और तप रूप मुख द्वारा जिसने इस जगत् को चरितार्थ किया है, शरण और स्मरण करने वाले भव्य प्राणियों के भय और शोक को जिसने दूर किया है (ऐसा यह जिनधर्म है ।) ।। १३५ ।। शान्त सुधारस विवेचन- २३
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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