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________________ अत्यन्त ही दुष्कर कार्य है। अनन्तकाल से अपनी आत्मा मोह की गुलाम बनी हुई है। परन्तु पाश्चर्य तो यह है कि हमने इस जेल को ही महल मान लिया है। प्रात्मा की सच्ची स्वतन्त्रता को भूल ही बैठे हैं। जन्म से भेड़-बकरी के टोले में रहा हुआ सिंह अपने आपको सत्त्वहीन मान लेता है, वही हालत हमारी अपनी आत्मा की भी है। आज तक हमें आत्मा की सच्ची पहचान नहीं हो पाई है। इस संसार में एकमात्र जिनेश्वर परमात्मा ही आत्मा के सच्चे स्वरूप को बताने में समर्थ हैं। अतः उनके द्वारा स्थापित जिनशासन ही हमारी रक्षा कर सकता है। जिनशासन तो मोहराजा के प्राक्रमरण के सामने ढाल का काम करता है। पूज्य उपाध्यायजी म. प्रार्थना करते हैं कि आज तक मोह के शासन में रहकर मैं मोह का गुलाम बना हूँ। अतः हे जिनधर्म ! आप मुझे बचाओ। जिनधर्म अर्थात् जिनेश्वर की आज्ञा। शास्त्रवचन है'पारणाए धम्मो' जिनेश्वर की आज्ञा, यही धर्म है। उनकी आज्ञानुसार जीवन जीना, यही धर्म का आचरण है। जिनधर्म की अनेक विशेषताएं बताई गई हैं (1) यह जिनधर्म मंगलरूप लक्ष्मी का कीड़ागृह है : मंगल अर्थात् मां गालयति (पापात्)। जो आत्मा की पापमय वासनाओं को दूर कर दे, नष्ट कर दे, वह मंगल कहलाता है। अथवा 'मंगु लाति' अर्थात् जो पुण्य का संग्रह करे, वह मंगल कहलाता है। शान्त सुधारस विवेचन-२०
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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