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________________ हो जाता है और उसका चित्त प्रसन्न हो जाता है इसी प्रकार इस संसार में अनन्त काल से परिभ्रमण करने के कारण हमारी प्रात्मा श्रमित बन चुकी है। औदासीन्य भावना के भावन से उसकी वह थकावट तुरन्त दूर हो जाती है । रोगी व्यक्ति को औषधि मिलने पर जैसा प्रानन्द प्राता है, वैसा ही प्रानन्द मुमुक्षु आत्मा को इस औदासीन्य भावना से माता है। यह माध्यस्थ्य भावना राग-द्वेष रूपी रोगों का सुन्दर इलाज है, इसके सेवन से प्रात्मा की थकावट दूर होती है और वह परमानन्द की अनुभूति करती है। लोके लोका भिन्न-भिन्नस्वरूपाः , भिन्नभिन्नः कर्मभिर्ममभिद्भिः । रम्यारम्यश्चेष्टितः कस्य कस्य , तद्विद्वद्भिः स्तूयते रुष्यते वा ॥ २१८ ॥ (शालिनी) अर्थ-मर्मस्थल को भेदने बाले भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मों को लेकर इस लोक में प्राणी भिन्न-भिन्न स्वरूप/आकार में दिखाई देते हैं। उनके सुन्दर और असुन्दर पाचरणों को जानने वाले बुद्धिमान् मनुष्य इनमें किनकी प्रशसा करे और किन पर रोष करे? ।। २१८ ॥ विवेचन जगत् की विचित्र स्थिति इस विराट् संसार में अनन्तानन्त आत्माएँ हैं। वे सब शान्त सुधारस विवेचन-२१६
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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