SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहो ! इस प्रकार विश्व के ये प्रारणी नाना प्रकार की समस्याओं से ग्रस्त होकर यातनाएँ भोग रहे हैं । हम क्या करें ? और क्या कहें ? विश्व के जीवों की यातनाओं का वर्णन अशक्य ही है । आश्चर्य तो इस बात का है कि ये अज्ञानी जीव अपने हाथों ही नई-नई समस्याएँ खड़ी कर रहे हैं । स्वयं खनन्तः स्वकरेण गत 1 मध्ये स्वयं तत्र तथा पतन्ति । तथा ततो निष्क्रमणं तु दूरे sधोऽधः प्रपाताद् विरमन्ति नैव ॥ २०५ ॥ ( उपजाति) अर्थ - अपने ही हाथों से गड्ढा खोदकर मोहमूढ़ श्रात्माएँ उसमें इस प्रकार गिर पड़ती हैं कि उसमें से बाहर निकलना तो दूर रहा, बल्कि अधिकाधिक नीचे गिरती ही जाती हैं ।। २०५ । विवेचन अज्ञानता से पतन इस संसार में जीवात्मा की जो दयनीय स्थिति है, उस दयनीय स्थिति का सर्जक आत्मा स्वयं है । दुनिया में दोनों मार्ग हैं- विकास के भी और विनाश के भी । व्यक्ति जिस मार्ग को पसन्द करता है, उस मार्ग में वह आगे बढ़ता है । मोहाधीन आत्माएं विनाश मार्ग का ही अनुसरण करती हैं, प्रत: वे उस मार्ग में सुधारस - १३ शान्त सुधारस विवेचन - १९३
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy