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________________ पर एक साथ सम्भव हैं ? बस, इसी प्रकार इस संसार में सुख की आशा करना व्यर्थ है। वास्तव में, इस संसार में आत्मा को जहाँ भी पौद्गलिक पदार्थों में सुख दिखाई देता है, वह सुख नहीं बल्कि सुखाभास है। परन्तु अज्ञानता और मोह के वश होकर प्रात्मा सांसारिक पदार्थों से ही सुख पाना चाहती है और इसके लिए ही वह सतत प्रयत्नशील है, परन्तु हम देखते हैं कि आत्मा ज्यों-ज्यों प्रयत्न करती है, त्यों-त्यों नवीन दुःखों का ही सर्जन करती है। सुख पाने की प्राशा से वह दौड़ती है, प्रयत्न करती है। आगम में कहा है-'इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं।' जिस प्रकार आकाश का कहीं अन्त नजर नहीं आता है, उसी प्रकार इच्छाओं का भी कोई अन्त नहीं है। एक इच्छा पूर्ण होते ही दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है। इस प्रकार इच्छाओं की शृंखला चलती ही रहती है और मनुष्य की सुख-प्राप्ति की आशा अधूरी की अधूरी बनी रहती है। सर्वप्रथम तो मनुष्य को भूख सताती है, अतः वह क्षुधा की तृप्ति के लिए प्रयत्न करता है। परन्तु जब उसे क्षुधा-तृप्ति योग्य सामग्री मिल जाती है, फिर भी वह विराम नहीं पाता है, उसके हृदय में नवीन इच्छा जागृत हो जाती है। दुनिया में दिन-रात व्यस्त लोगों से जब हम यह प्रश्न करते हैं कि 'भाई ! इतने व्यस्त क्यों हो ?' .."तो सर्वप्रथम तो वे यही जवाब देते हैं कि "भाई ! यह सब पेट के लिए करते हैं।" परन्तु क्षुधा-तृप्ति के अनुरूप धन-सामग्री मिल जाने के बाद भी उन्हें सन्तोष कहाँ है ? शान्त सुधारस विवेचन-१८५
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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