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________________ अनुमोदना करता है, तो जैनदर्शन के अनुसार वे तीनों व्यक्ति समान पुण्य के भागी बनते हैं । __ कई बार तो सुकृत करने वाले की अपेक्षा भी अनुमोदन करने वाला अधिक पुण्य का भागी बन जाता है। करण और करावण की अपेक्षा अनुमोदन का क्षेत्र विशाल है। व्यक्ति के स्वयं सुकृत करने की एक सीमा होती है, अन्य को प्रेरणा भी मर्यादित क्षेत्र में ही की जा सकती है, परन्तु अनुमोदना तो कालिक हो सकती है। दूर-देशान्तरवर्ती महान् आत्माओं के सुकृत की भी हम अनुमोदना कर सकते हैं। अनुमोदना मन से होती है। मन का क्षेत्र व्यापक है । मन के द्वारा हम सभी के समस्त सुकृतों की अनुमोदना कर सकते हैं। इस संसार में किसी व्यक्ति के पास बहुत सा धन हो और वह उस धन का किसी धार्मिक संस्था प्रादि में दान करता है, तो हमें उसके सुकृत की अनुमोदना करनी चाहिये-'धन्य है, उसने अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग कर लिया।' इस दुनिया में किसी व्यक्ति को बहुत सा मान-सम्मान मिलता हो तो भी उसकी हमें अनुमोदना करनी चाहिये न कि उससे ईर्ष्या । इस प्रकार गुरणग्राहकता होगी तो सर्वत्र गुण ही नजर पाएंगे, अन्यथा दानी को देखकर भी यही सोचेंगे-'हम जानते हैं उसे, वह कितना ईमानदार है ? वाह ! अब दान देने चले हैं।' शान्त सुधारस विवेचन-१७४
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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