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________________ अमृतपान के समान उस वाणी का श्रवण करते ही आत्मा तृप्त बन जाती है। छह माह की भूख-प्यास शान्त हो जाती है। उनकी वाणी में ऐसा अतिशय होता है कि सभी जीव अपनीअपनी भाषा में प्रभु की वाणी को समझ जाते हैं। आजन्म वैरी प्राणी भी अपने समस्त वैर-भावों को भूलकर एक मित्र की भाँति पास-पास में बैठ जाते हैं । ऐसे अनन्त गुणों के स्वामी तीर्थंकर परमात्मा का हम क्या गुणकीर्तन करें? बृहस्पति भी उनके समस्त गुणों का कीर्तन करने में समर्थ नहीं है। ऐसे अनन्तज्ञान व शक्ति के पुज, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीर्थंकर परमात्मा के समस्त सुकृतों की हम हार्दिक अनुमोदना करते हैं। तेषां कर्मक्षयोत्थैरतनु - गुरणगनिर्मलात्मस्वभावै यं गायं पुनीमः स्तवनपरिणतैरष्टवर्णास्पदानि । धन्यां मन्ये रसज्ञां जगति भगवतस्तोत्रवाणीरसज्ञामज्ञां मन्ये तदन्यां वितथजनकथां - कार्यमौखर्यमग्नाम् ॥ १८८ ॥ (स्रग्धरावृत्तम्) अर्थ-कर्मक्षय से उत्पन्न अनेक गुणों के समूह वाले, निर्मल आत्म-स्वभाव द्वारा परमात्मा की स्तवना में तल्लीन परिणति द्वारा बारम्बार प्रभु के गुणगान करके, पाठ वर्ण के उच्चार स्थानों को हम पवित्र करते हैं तथा जगत् में भगवन्त के स्तोत्र वारणी के रस को जानने वाली जीभ को मैं रसज्ञा (जीभ) कहता हूँ, शान्त सुधारस विवेचन-१५६
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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