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________________ ग्रन्थकार महर्षि फरमाते हैं कि समतारस का स्वाद भी ऐसा है, जिसकी एक बार अनुभूति हो जाने के बाद, उसके आस्वादन की इच्छा स्वतः पैदा होती है। प्रशमरस के सुख का आनन्द कुछ अनोखा ही है। इस सुख के अनुभव के बाद व्यक्ति की भौतिक इच्छाएँ मन्द हो जाती हैं। वास्तव में, समतारस एक ऐसा सुख है, जिसका एक बार स्वाद लेने के बाद व्यक्ति कभी उसे छोड़ना नहीं चाहेगा। इस सुख के प्रास्वादन के लिए हृदय को मैत्री भाव से अोतप्रोत करना अनिवार्य है। सच पूछो तो मैत्री भावना ही समत्व की जननी है। मैत्री भाव के प्रभाव में हृदय में समता की प्राप्ति सम्भव नहीं है। सम्यक्ज्ञान से सम्यक् इच्छा पैदा होती है और सम्यक् इच्छा . होने पर उसकी प्राप्ति के लिए योग्य पुरुषार्थ प्रारम्भ होता है, यदि समता के सुख का ज्ञान हो जाय तो उसको पाने की इच्छा हुए बिना नहीं रहेगी और उसे पाने की तीव्र इच्छा होगी तो उसकी प्राप्ति भी अवश्य होगी। किमुत कुमतमदमूच्छिताः, दुरितेषु पतन्ति । जिनवचनानि कथं हहा , न रसादुपयन्ति ॥ विनय० १८५ ॥ अर्थ-कुमत रूपी मद से मूच्छित बनकर प्राणी दुर्गति के गर्त में क्यों पड़ते हैं ? वे जिनवचन रूप अमृत रस का प्रेम से पान क्यों नहीं करते हैं ? ॥१८५।। शान्त सुधारस विवेचन-१४३
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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