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________________ और अग्निशर्मा की आत्मा ने गुरणसेन राजा के प्रति द्वेष भाव को धारण कर अपनी आत्मा का अनन्त संसार बढ़ा लिया । मैत्री आदि भावना के भावन में न तो धन का खर्च है और न ही काया कष्ट है । बस, एक मात्र विचारों की उदारता धारण करनी है । इस प्रकार संकीर्ण विचारों की दरिद्रता का त्याग करने से और शत्रु आदि के भी कल्याण की कामना से अपनी आत्मा अल्प काल में ही शुद्ध बनने लगती है । O सकृदपि यदि समतालवं, हृदयेन लिहन्ति । विदितरसास्तत इह रति स्वत एव वहन्ति ।। विनय० १८४ ।। अर्थ - एक बार भी प्रारणी यदि समता के सुख का आस्वादन कर लेता है, तो फिर उस सुख को जानने के बाद स्वतः समत्वरस की प्रीति पैदा होती है ।। १८४ ।। विवेचन समता के प्रति प्रीति रखो एक बार मफतलाल सेठ को अपने ससुराल जाना था । वे अपने घर से पैदल ही निकल पड़े, परन्तु मार्ग भूल गए । उन्हें एक ग्रामीण दिखाई दिया । उन्होंने उस ग्रामीण को कहा - " भाई ! तू मुझे अमुक गाँव का रास्ता बताएगा ? यदि तू मेरे साथ चलेगा तो तुझे... ।” शान्त सुधारस विवेचन- १४१
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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