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________________ जल का आभास मात्र है। उसी प्रकार इस संसार में यदि कोई हमें शत्रु प्रतीत हो रहा है, तो यह भी हमारी दृष्टि का ही दोष है। ____ जिस प्रकार माइक्रोस्कोप से छोटी वस्तु भी बड़ी दिखाई देती है, परन्तु दिखने मात्र से वह वस्तु बड़ी नहीं हो जाती है । उसी प्रकार हे आत्मन् ! किसी भी व्यक्ति को शत्रु मानना, यह तो तेरी भ्रमबुद्धि है, कल्पना है। वास्तव में, तो वह जातीय बन्धु है, मित्र है। .. तू अपने मित्र के प्रति द्वेष भाव धारण कर अपने पुण्य को भस्मीभूत करने वाले पाप का आचरण मत कर। किसी भी व्यक्ति पर द्वेषभाव धारण करने से अपना मन कलुषित बनता है और कलुषित मन अपने सुकृतों का नाश करता है । ___ हे आत्मन् ! तूने बड़ी कठिनाई से तो सुकृत/पुण्य का संचय किया है, मन के कालुष्य के द्वारा तू उसे नष्ट मत कर। बड़ी कठिनाई से तूने विशाल भवन का निर्माण किया है, प्रब एक ईंट की आवश्यकता के लिए तू इस भवन को गिराने के लिए उद्यत हुआ है, यह तेरी कैसी मूर्खता है ? बस, इसी प्रकार तूने बड़ी कठिनाई से पुण्य का सर्जन किया है, उसे तू व्यर्थ ही नष्ट मत कर । यदि कोपं कुरुते परो, निजकर्मवशेन । अपि भवता किं भूयते , हृदि रोषवशेन ॥ विनय० १८१॥ शान्त सुधारस विवेचन-१३४
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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