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________________ हैं । अतः हे प्रात्मन् ! आज तू जिस आत्मा / व्यक्ति के प्रति शत्रु भाव को धारण कर रहा है, वह तो गत जन्मों में तेरा बन्धु था, अतः वर्तमान में शत्रु भाव को धारण कर तू उस (गत जन्म की) बन्धुता को नष्ट क्यों कर रहा है ? अपने भाई के साथ तो भ्रातृत्व भाव होना चाहिये ! उसके प्रति वैर भाव रखना तो मूर्खता ही है । अतः प्राज तू जिसे शत्रु मान रहा है, उसके प्रति तेरे हृदय में रही हुई शत्रुता का तू त्याग कर दे और उसके प्रति भी मैत्री भाव को धारण कर । जब वह तेरा भाई ही है, तो फिर उस पर शत्रु भाव क्यों ? भाई के प्रति तो स्नेह, प्रेम होना चाहिये । उस वैर भाव का त्याग कर अब उस शत्रु को भी गले लगाना सीख । उसके श्रात्म- हित का चिन्तन कर | सर्वे पितृ-भ्रातृ-पितृव्य-मातृपुत्राङ्गजा स्त्रीभगिनीस्नुषात्वम् । जीवाः प्रपन्ना बहुशस्तदेतत्, कुटुम्बमेवेति परो न कश्चित् ॥ १७६ ॥ ( उपजाति) अर्थ - ( इस संसार में ) ये सभी जीव पिता, भ्राता, चाचा, माता, पुत्र, पुत्री, स्त्री, बहिन तथा पुत्रवधू के रूप में बहुत बार प्राप्त हुए हैं अतः यह सब तुम्हारा ही कुटुम्ब है, पराया या दुश्मन नहीं है ।। १७६ ।। विवेचन जगत् के सभी जीव अपने ही कुटुम्बी हैं हे प्रात्मन् ! इस संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे सब तेरे शान्त सुधारस विवेचन- १२२
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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