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ये चारों भावनाएँ जीव सम्बन्धी हैं। इस संसार में जो अनन्तान्त आत्माएँ हैं, उन प्रात्मानों के प्रति हमारे हृदय में कौनसी भावना होनी चाहिये और उस भावना का स्वरूप क्या है ? यह बात हमें पूज्य उपाध्यायजी म. सिखा रहे हैं ।
मैत्री भावना-यह मैत्रो भावना जगत् में रहे हुए समस्त प्राणियों के प्रति रखने की है। चाहे वह जीव एकेन्द्रिय अवस्था में हो, चाहे बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय या पंचेन्द्रिय अवस्था में हो। वह जीव सूक्ष्म हो या बादर हो, पर्याप्त हो अथवा अपर्याप्त हो, बस हो या स्थावर हो। मनुष्य हो या तिर्यंच हो, देव हो या नारक हो। व्यवहारराशि वाला हो या अव्यवहारराशि वाला हो, उन सब जीवों के प्रति हमारे हृदय में मैत्री भावना होनी चाहिये।
जीवत्व के प्रति द्वेष या वैर भाव हमारी अन्तरंग साधना में बाधक है, जब तक इस संसार में एक भी जीवात्मा के प्रति वैर भाव रहेगा, तब तक आत्मा की मुक्ति होने वाली नहीं है।
इसीलिए तो दोनों संध्या-प्रतिक्रमण करते समय 'मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झं न केण वि' पाठ बोला जाता है ।
(१) मेरी सब जीवों के साथ मैत्री है और (२) किसी के साथ वैर नहीं है।
मैत्री भावना का स्वरूप है-परहित-चिन्तन। इस भावना के द्वारा जगत् के सर्व जोवों के हित की कामना की जाती है ।
(इस भावना का विशद विवेचन आगे की गाथाओं में होगा।)
शान्त सुधारस विवेचन-११४