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________________ जब तक आत्मा का चरमावर्त में प्रवेश नहीं होता है और जब तक वह ग्रंथि-भेद नहीं करती है, तब तक आत्मा में राग-द्वेष की अत्यन्त प्रबलता रहती है। अचरमावर्ती और दीर्घसंसारी आत्मा में तीव्र राग और तीव्र द्वष रहा हुआ होता है। उसे सांसारिक सुख और उस सुख के साधनों के प्रति तीव्र राग होता है और दुःख और दुःख के साधनों के प्रति तीव्र द्वेष होता है । सांसारिक सुख को पाने की तीव्र लालसा होने के कारण उसका अधिकांश प्रयत्न भी इसी के लिए होता है। इसके साथ ही वह दुःखमुक्ति के लिए भी अत्यन्त प्रयत्नशील होती है । परन्तु आश्चर्य है कि सुख का तीव्र राग और दुःख का तीव्र द्वेष होने पर भी वह आत्मा न तो पूर्ण सुख को प्राप्त कर पाती है और न ही वह दुःख से मुक्त बन पाती है। पूज्य वाचकवर्य श्री उमास्वातिजी ने कहा हैदुःखद्विट्सुखलिप्सुर्मोहान्धत्वाददृष्ट - गुरणदोषाः। यां यां करोति चेष्टां, तया तया दुःखमादत्ते ॥ मोह के अन्धत्व के कारण वस्तु के वास्तविक गुण-दोष को नहीं समझने के कारण दुःख के प्रति तीव्र द्वेष और सूख की तीव्र लालसा होने पर भी यह प्रात्मा ज्यों-ज्यों प्रयत्न करती है, त्यों-त्यों नवोन दुःखों को ही प्राप्त करती है। अनन्त ज्ञानी महापुरुषों ने बतलाया है कि 'इस भौतिक संसार में वास्तव में सुख नाम की कोई चीज नहीं है। इस संसार में जहाँ-जहाँ सुख दिखाई देता है, वह सुख नहीं बल्कि सुखाभास ही है। मृग-मरीचिका की भाँति आत्मा को इस संसार में सुख दिखाई देता है, परन्तु वह कल्पना मात्र ही है। शान्त सुधारस विवेचन-१०६
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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