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________________ कदाचित् कान से धर्म का श्रवण किया भी हो तो भी उसे हृदय को स्पर्श होने नहीं दिया है । सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी म. ने 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र' में कहा है प्राकरिणतोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, ननं न चेतसि मया विधतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं, यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः॥ "हे जनबान्धव ! गत जन्मों में मैंने आपकी वाणी का श्रवण किया भी होगा, आपकी मैंने पूजा भी की होगी और आपके दर्शन भी किए होंगे, परन्तु मैंने (अभी तक) आपको हृदय से धारण नहीं किया और इसी कारण मैं दुःख का पात्र बना हूँ, क्योंकि भावशून्य क्रियाएँ कभी फलदायी नहीं बनती हैं।" चौरासी लाख जीव-योनियों में अधिकांशतः हम बहिरात्मदशा में ही भटके हैं और देह में ही प्रात्मबुद्धि करके हमने दैहिक सुखों के लिए ही निरन्तर प्रयत्न और पुरुषार्थ किया है। वर्तमान में भी यदि अपने जीवन का निरीक्षण किया जाय तो पता चलेगा कि अपना अधिकांश समय दैहिक/भौतिक सुखों के पीछे ही व्यतीत हो जाता है। खाना, पीना, सोना, घूमना इत्यादि-इत्यादि क्रियाएँ देह के सुख के लिए ही तो होती हैं । आत्मा के विकास की क्रियाओं के लिए समय ही कहाँ है ? दुनिया में भी चारों ओर लोगों से बातचीत करेंगे या सुनेंगे तो अधिकांशतः अर्थ और काम के पोषण की ही बातें होंगी। शान्त सुधारस विवेचन-१०२
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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