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गया और उसने ब्राह्मण को 'चिन्तामरिण-रत्न' दे दिया। चिन्तामणि रत्न पाकर ब्राह्मण अत्यन्त प्रसन्न हो गया। वह एक जहाज में बैठ गया और उसकी यात्रा प्रारम्भ हुई।
उसने पूर्णिमा के दिन यात्रा प्रारम्भ की थी। सूर्यास्त के साथ ही आकाश में चन्द्रमा का उदय हुआ। चन्द्रमा का विशाल मण्डल भूमितल को प्रकाशित करने लगा।
उस ब्राह्मण ने भी चन्द्रमा की तेजस्विता देखी । जहाज के एक किनारे बैठकर अपने हाथ में चिन्तामणि रत्न लेकर वह सोचने लगा-"मेरा रत्न अधिक प्रकाशमान है या यह चन्द्रमा ?" दोनों के प्रकाश की तुलना में वह कभी चन्द्रमा की ओर देखता तो कभी रत्न की ओर। बस, इस प्रकार के विचार-विमर्श में अचानक ही वह चिन्तामणि रत्न समुद्र में गिर पड़ा। अति कठिनाई से प्राप्त चिन्तामणि रत्न एक क्षण में खो गया।
इस दृष्टान्त से पूज्य उपाध्याय श्री विनय विजयजी म. हमें बोधि की दुर्लभता समझाते हुए फरमाते हैं कि हे भव्यात्माओ! बोधि की दुर्लभता को समझकर उसे पाने के लिए प्रयत्नशील बनो। बोधि के प्राराधन से ही प्रात्म-हित साधा जा सकता है । बोधि की प्राप्ति बिना आत्म-हित की सिद्धि सम्भव नहीं है ।
___ बोधि की प्राप्ति होने पर आत्मा की दुर्गति भी रुक जाती है। सम्यक्त्व अवस्था में आयुष्य का बन्ध हो तो आत्मा की अवश्य सद्गति होती है ।
शान्त सुधारस विवेचन-८६