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________________ श्री संवेगरगशाला चलित अथवा स्खलित-पतित बने हुए, स्वस्थ रहे अथवा दुस्थित, स्वतन्त्र, परतन्त्र तथा छींक, उबासी, या खांसी प्रसंग पर अथवा बहुत कहने से क्या ? जिस किसी अवस्था में रहने पर भी जिसके चित्त का उत्साह कम न होता हो उस उत्साह से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ज्ञान का ग्रहण करना उसे धारण करना चाहिए। तत्त्व से परतन्त्रता वाला है, ऐसा समझकर सम्यग् ज्ञान गुण से युक्त ज्ञानी पुरुष रत्नों की हमेशा भक्ति सेवा अतिमान करना चाहिये। इस तरह के आठ आचार पालन, पांच प्रकार के स्वाध्याय और विनय भक्ति से उस सम्यग् ज्ञान की आराधना है। __दर्शन की सामान्य आराधना :-जो स्वरूप से गम्भीर अर्थ वाला होने से मुश्किल से समझ आए ऐसा जीव, अजीव आदि सर्व सद्भूत पदार्थ हैं उसे अनुपकारी प्रति भी अनुग्रह करने में तत्पर परम ऐश्वर्य वाले श्री जिनेश्वर भगवान का कथन होने से वह कथंचित् अल्प बुद्धि होने के कारण समझ में नहीं आए तो भी 'वह ऐसा ही है' ऐसा भाव से हमेशा उसमें शंका बिना तथा रूप स्वीकारता है वह (१) नि:-शक्ति आचार जानना, तथा यह अन्य दर्शन मिथ्या है, तो भी अमुक गुणों से वह दर्शन सम्यक् है ऐसा समझ कर उसकी आकांक्षा नहीं करना वह (२) निष्कांक्षित आचार है । शास्त्रविहित क्रियानुष्ठान का फल मिलेगा या नहीं मिलेगा? ऐसी शंका करना, तथा सूखे पसीने से मलीन वस्त्र या शरीर वाले मुनियों में दुर्गच्छा नहीं करना वह (३) निर्विचिकित्सा आचार है । कुतीथियों के कुछ पूजा प्रभावना आदि अतिश्य को देखकर मन में विस्मय नहीं करना, मोहमूढ़ न बनना वह (४) अमूढ़ दृष्टि आचार है। ये चार प्रकार निश्चयनय का है। धर्मात्माजनों के गुणों की प्रशंसा करके उत्साह बढ़ाना वह (५) उपबृहणा आचार है। जो गुणों से चंचल हो उसे उन गुणों में स्थिर करना वह (६) स्थिरीकरण आचार है। तथा विध सार्मिकों का यथा शक्ति जो वात्सल्य करना वह (७) वात्सल्य आचार है। और श्री अरिहंत भगवन्त कथित प्रवचन (शासन) की विविध प्रकार से प्रभावना करना उसका यश की महीमा बढ़ाना वह (८) प्रभावना आचार है। ये चार प्रकार व्यवहार नय का है। और इस निर्ग्रन्थ प्रवचन का यही अर्थ है, यही निश्चय परमार्थ है और इसके बिना सर्व अनर्थ है। इस तरह भाव से चिन्तन करना तथा निर्मल सम्यक्त्व गुणों से महान् पुरुषों का नित्यमेव जो भक्ति अति मान देना वह सर्व दर्शन आराधना जानना। चारित्र को सामान्य आराधना :-सर्व सावध (पापकारी) योग का त्यागपूर्वक सत् प्रवृत्ति करना वह चारित्र है और जो पांच महाव्रतों का पालन,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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