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________________ श्री संवेगरंगशाला ६२१ तथा नीति से श्रेष्ठ समस्त गुणों के भंडार श्री जिनदत्त गणी नामक शिष्य ने इसे प्रथम पुस्तक रूप में लिखी है। भावि में भ्रमण को मिटाने के लिए इस ग्रन्थ में सर्व गाथा (श्लोक) का मिलाकर कुल दस हजार तिरेप्पन होते हैं। इस प्रकार श्री जिन चन्द्र सूरीश्वर ने रचना की है, उनके शिष्य रत्न श्री प्रसन्न चन्द्र सूरी जी के प्रार्थना से श्री गुणचन्द्र गणी ने इस महा ग्रन्थ को संस्कारित किया है और श्री जिन वल्लभगणी ने संशोधन करके श्री संवेग रंगशाला नाम की आराधना पूर्ण हई। वि० स० १२०३ पाठांतर १२०७ वर्ष में जेठ शुद १४ गुरुवार दिन दण्ड नायक श्री वोसरि ने प्राप्त किये ताम्ब पत्र पर श्रीवट वादर नगर के अन्दर संवेगरंगशाला पुस्तक लिखी गई है इति ऐसा अर्थ का संभव होता है। तत्त्व तो केवल ज्ञानी भगवन्त जाने। इस ग्रन्थ का उल्लेख श्री देवाचार्य रचित कथा रत्न कोष की प्रशस्ति में इस प्रकार से जानकारी मिलती है-आचार्य श्री जिन चन्द्र सूरीश्वर जी वयरी वज्र शाखा में हुए हैं। वे आचार्य श्री बुद्धिसागर सूरिश्वर जी शिष्य थे और ग्रन्थ रचना वि० स० ११३६ में की थी। कहा है कि चान्द्र कुल में गुण समूह से वृद्धि प्राप्त करते श्री वर्धमान सूरीश्वर के प्रथम शिष्य श्री जिनेश्वर सूरी जी और दूसरे शिष्य श्री बुद्धिसागर सूरी जी हुए हैं। आचार्य श्री बुद्धि सागर सूरी के शिष्य चन्द्र सूर्य की जोड़ी समान श्री जिन चन्द्र सूरी जी और नवांगी टीकाकार श्री अभयदेव सूरी जी हुए, उन्होंने अपनी शीत और ऊष्ण किरणों से जगत में प्रसिद्ध थे। उन श्री जिन चन्द्र सूरीश्वर जी ने यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना रचना की है और श्री प्रसन्न चन्द्र सूरीश्वर के सेवक अनु सुमति वाचक के शिष्य लेश श्री देवभद्र सूरि ने कथा रत्न कोश रचना की है और यह संवेगरंगशाला नामक आराधना शास्त्र का भी संस्कारित करके उन्होंने भव्य जीवों के योग्य बनाया है। इसके अतिरिक्त जेसलमेर तीर्थ के भण्डार की ताड़पत्र ऊपर लिखा हुआ संवेगरंगशाला के अन्तिम विभाग में लिखने की प्रशस्ति इस प्रकार हैजन्म दिन से पैर के भार से दबाये मस्तक वाला मेरू पर्वत के द्वारा भेंट स्वरूप मिली हुई सुवर्ण की कान्ति के समूह से जिनका शरीर शोभ रहा है वे श्री महावीर परमात्मा विजयी हैं। सज्जन रूपी राजहंस की क्रीड़ा की परम्परा वाले और विलासी लोग रूपी पत्र तथा कमल वाले सरोवर समान श्री अणहिल्ल पट्टन (पाटन) नगर में रहने वाला तथा जिसने भिल्लमाल नामक महागोत्र का समुद्वार या वृद्धि की है उस गुण सम्पदा से युक्त मनोहर आकृति वाला, चन्द्र समान सुन्दर यश वाला, जगत में मान्य और धीर श्री जीववान
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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