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श्री संवेगरंगशाला
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करने में अनन्य कल्पवृक्ष प्रभु ! आपकी जय हो । हे चन्द्रसम निर्मल यश के विस्तार वाले हे शरणागत के रक्षण में स्थिर लक्ष वाले ! और हे राग रूपी शत्रु के घातक हे गणधर श्री गौतम प्रभु ! आप विजयी हैं ! आप ही मेरे स्वामी पिता हो, आप ही मेरी गति और मति हो, मित्र और बन्धु भी आप ही हो आपसे अन्य मेरा हितस्वी कोई नहीं है । क्योंकि - इस आराधना विधि के उपदेशदाता आपने संसार रूपी कुएँ में गिरते हुए मुझे हाथ का सहारा देकर बाहर निकाला है | आपके वचनामृत रूपी जल की धारा से सिंचन किया हुआ मैं हूँ । इस कारण से मैं धन्य हूँ, कृतपुण्य हूं और मैंने इच्छित सारा प्राप्त किया है । हे परम गुरू ! प्राप्ति करने में अत्यन्त दुर्लभ होने पर भी तीन जगत की लक्ष्मी मिल सकती है, परन्तु आपकी वाणी का श्रवण कभी नहीं मिलता है । हे भवन बन्धु । यदि आपकी अनुज्ञा मिले तो अब मैं संलेखना पूर्व आराधना विधि को करना चाहता हूँ ।
फिर फैलती मनोहर उज्जवल दांत की कान्ति के समूह से दिशाओं को प्रकाश करते श्री गौतम स्वामी ने कहा कि - अति निर्मल बुद्धि के उत्कृष्ट से संसार के दुष्ट स्वरूप को जानने वाले, परलोक में एक स्थिर लक्ष्य वाले, सुख की अपेक्षा से अत्यन्त मुक्त और सद्गुरू की सेवा से विशेषतया तत्त्व को प्राप्त करने वाले हे महामुनि महसेन ! तुम्हारे जैसे को यह योग्य है इसलिए इस विषय में थोड़ा भी विलम्ब नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह शुभ अवसर बहुत विघ्न वाला होता है और पुनः पुनः धर्म सामग्री भी मिलना दुर्लभ है और कल्याण की साधना सर्व प्रकार के विघ्नवाली होती है, और ऐसा होने से जिसने सर्व प्रयत्न से धर्म कार्यों में उद्यम किया उसी ने ही लोक में जय पताका प्राप्त की है । उसी ने ही संसारमय को जलांजलि दी है और स्वर्ग मोक्ष की लक्ष्मी को हस्त कमल में प्राप्त की है । अथवा तूने क्या नहीं साधन किया ? इसलिए साधुता का सुन्दर आराधक तू कृत पुण्य है कि तेरी चित्त प्रकृति सविशेष आराधना करने के लिए उत्साही हो रहा है । हे महाभाग ! यद्यपि तेरी सारी क्रिया अवश्यमेव आराधना रूप है फिर भी अब यह कही हुई उस विधि में
दृढ़ प्रयत्न कर ।
यह सुनकर परम हर्ष से प्रगट हुए रोमाँच वाले राजर्षि महसेन मुनि गणधर के चरणों में नमस्कार कर, मस्तक को कर कमल को लगाकर - हे भगवन्त ! अब से आपने जो आज्ञा की उसके अनुसार करूँगा । इस प्रकार प्रतिज्ञा करके वहाँ से निकला । फिर पूर्वोक्त दुष्कर तपस्या को सविशेष करने से दुर्बल शरीर वाले बने हुए भी वह पूर्व में विस्तार पूर्वक कही हुई विधि से सम्यक्त्व द्रव्य भाव संलेखना को करके त्याग करने योग्य भाव के पक्ष को