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श्री संवेगरंगशाला
संक्रमण करना वही चिन्तन कहलाता है। प्रश्न करते हैं कि अर्थ और व्यंजन का क्या भावार्थ है? उत्तर देते हैं कि द्रव्य (वाच्य पदार्थ) उस अर्थ और अक्षरों का नाम वाचक, वह व्यंजन तथा मन, वचन आदि योग जानना, उसे योगों द्वारा अन्यान्य अवान्तर भेद-पर्यायों में जो प्रवेश करना उसे निश्चय से विचार कहा है, उस विचार से सहित के सविचार कहा है अर्थात् पदार्थ और उसके विविध पर्याय में, शब्द में अथवा अर्थ में मन आदि विविध योगों के द्वारा पूर्वगत श्रुत के अनुसार जो चिन्तन किया जाए वहाँ विचार 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' नामक प्रथम शुक्ल ध्यान जानना । एकत्व-वितर्क में एक ही पर्याय में अर्थात् उत्पाद, स्थिति, नाश आदि में किसी भी एक ही पर्याय में ध्यान होता है, अतः एकत्व और पूर्वगत श्रत, उसके आधार पर जो ध्यान हो वितर्क युक्त है और अन्याय व्यंजन, अर्थ अथवा योग को धारण संक्रमण विचरण गमन नहीं करने के लिये अविचार कहा है । इस तरह पवन रहित दीपक के समान स्थिर दूसरे शुक्ल ध्यान को 'एकत्व वितर्क अविचार' कहा है। केवली को सूक्ष्म काययोग में योग निरोध करते समय तीसरा 'सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति' ध्यान होता है और अक्रिया (व्यूच्छिन्न क्रिया) अप्रतिपाती यह चौथा ध्यान है, उसे योग निरोध के बाद शैलेशी में होता है । क्षपक को कषाय के साथ युद्ध में यह ध्यान आयुद्ध रूप है । शस्त्र रहित सुभट के समान ध्यान रहित क्षपक युद्ध-कर्मों को नहीं जीत सकता है। इस प्रकार ध्यान करते क्षपक जब बोलने में अशक्य बनता है तब निर्यामकों को अपना अभिप्रायः बताने के लिये हुँकार, अंजलि, भृकुटी अथवा अंगुलि द्वारा या नेत्र का संकोच आदि करके अथवा मस्तक को हिलाकर आदि इशारे से अपनी इच्छा को बतलावे । तब निर्यामक क्षपक की आराधना में उपयोग को दे, सावधान बने। क्योंकि श्रुत के रहस्य के जानकार वह संज्ञा करने से उसके मनोभाव को जान सकता है। इस प्रकार समता को प्राप्त करते तथा प्रशस्त ध्यान को ध्याता और लेश्या से विशुद्ध को प्राप्त करते वह क्षपक मुनि गुण श्रेणि के ऊपर चढ़ता है। इस प्रकार धर्मशास्त्र रूप मस्तक मणि तुल्य सद्गति में जाने के सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला चौथा समाधि लाभ द्वार में ध्यान नाम का छठा अन्तर द्वार कहा है। अब ध्यान का योग होने पर भी शुभाशुभ गति तो लेश्या की विशेषता से ही होता है, अतः लेश्या द्वार को कहते हैं।
सातवाँ लेश्या द्वार:-कृष्ण, नील, कपोत, तेजस, पद्म और शुक्ल, ये छह प्रकार की लेश्या हैं। ये विविध रूप वाली कर्म दल के सानिध्य से स्फटिक